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________________ कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १८९ कर्मों के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धा होने पर ___ कर्म के अस्तित्व के सम्बन्ध में विविध महान पुरुषों के अनुभवयुक्त प्रमाण होने पर भी ये दोनों कोटि के व्यक्ति बार-बार कर्म के प्रति अश्रद्धा प्रकट करते रहते हैं। आगे चलकर दोनों वर्ग के लोग पुण्य (शुभकम) के सम्बन्ध में निराश और उदासीन तथा पाप (अशुभ कम) के सम्बन्ध में ढीठ, निर्भय और निःशंक हो जाते हैं, बेधड़क होकर पापकर्म करने लगते हैं। पापकर्मों के प्रति निःशंकता-निर्भयता और सत्कर्मों के प्रति उपेक्षा या उदासीन का प्रमुख कारण कर्म के अस्तित्व के प्रति संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय ही प्रतीत होता है। यही है, वह प्रमुख अवरोधरूप चट्टान, जिससे टकरा कर उनकी आत्मिक प्रगति ध्वस्त हो जाती है या चूर-चूर हो जाती है। मनुष्य कर्म की सत्ता के प्रति अविश्वासरूप अवरोध के कारण धैर्य, गम्भीर्य, सद्विचार-सदाचार के प्रति निष्ठा, फल के प्रति अनासक्ति, पवित्रता, सात्विकता, क्षमाशीलता, दया, सहृदयता आदि आत्मिक गुणों से भी प्रायः भ्रष्ट, शिथिल और उदासीन हो जाता है। वह नहीं जानता कि कर्म के अस्तित्व के प्रति अविश्वास करना, आत्मा और परमात्मा के प्रति अविश्वास करना है। क्योंकि आत्मा और कर्म दोनों का परस्पर संयोगसम्बन्ध है। इसी को दूसरे शब्दों में नास्तिकता, अनास्था, मिथ्यादृष्टि अथवा अश्रद्धा कहते हैं।' आस्थाहीन अपने लिए अनिष्ट संयोगों को निमंत्रण देता है कर्मतत्त्व के प्रति अश्रद्धालु व्यक्ति अपने जीवन में जो भी धर्मक्रियाएँ तप, जप, व्रत, नियम आदि करते हैं, वे सब मिथ्यादृष्टि से युक्त होने से संसारक्षय (कर्मक्षय) कारक नहीं अपितु संसारवर्द्धक ही होते हैं, और जो आत्मा और कर्म के अस्तित्व के प्रति नास्तिक होकर निर्भयतानिःशकतापूर्वक अनिष्ट दुष्कृत्यों का आचरण करते हैं और सुकृत्यों की घोर निन्दा व उपेक्षा करते हैं, वे तो अपने ही पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का-सा कार्य करते हैं। सुमार्ग को छोड़कर कुमार्ग की कंटीली राह पर चलने से अपने ही पैर कांटों से बिंधते हैं। अपने ही अंगोपांग छिलते और कपड़े फटते हैं। अर्थात्-कर्मों का क्षय करने की अपेक्षा हिंसा, झूठ१. अखण्ड ज्योति अप्रैल १९७७ से सार-संक्षेप .२. (क) तुलना कीजिए - .... येनैव देहेन विवेकहीनाः संसारमार्ग परिपोषयन्ति। तेनैव देहेन विवेकभाजः संसारमार्ग परिशोषयन्ति ॥ (ख) अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७७ से सार-संक्षेप -अध्यात्मसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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