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________________ १८८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) उपाय से मिटने का नाम ही नहीं लेती, बल्कि उसके साथ ही नित-नये । उपद्रव खड़े हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में नास्तिक कहलाने वाले लोगों को भी यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है, कि “यह बीमारी जो असाध्य-सी हो रही है, इस रोगी के किसी न किसी पूर्वकृत कर्म का ही . फल है।" जैसाकि योगशास्त्र में कहा है - "पंगुपन, कोढ़ीपन और कुणित्व (टोंटापन) आदि हिंसाजनित कर्म के फलों को देखकर विवेकी पुरुष निरपराध त्रसजीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करें।" वैद्यों एवं नीतिकारों की दृष्टि में रोगादि का मूल कारण : कर्म प्रसिद्ध वैद्य चरक, धन्वन्तरि आदि भी रोगों का मूल कारण पूर्वकृत अशुभ कर्मों को ही मानते हैं। एक बार जिज्ञासु अग्निवेश ने आचार्य चरक से पूछा- “संसार में जो अगणित रोग पाये जाते हैं, उनका कारण क्या है ?" 'चरक संहिता' में आचार्य ने बताया कि-"व्यक्ति के पास जिस स्तर के पाप संचित हो जाते हैं, उसी के अनुरूप शारीरिक और मानसिक . व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं।"२ नीतिकार चाणक्य ने भी स्पष्ट कहा-“दरिद्रता, दुःख, रोग, शोक बन्धन, संकट और विपत्तियाँ ये सब, प्राणियों के अपने अपराध (दुष्कम) रूपी वृक्ष के फल हैं।" मनुस्मृति में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-पापकर्म से व्याधि, बुढ़ापा, दीनता-निर्धनता, दुःख एवं भयंकर शोक की प्राप्ति होती है। छोटे और बड़े पापों के क्रमशः छोटे-बड़े फल प्राणी को भोगने पड़ते हैं। दुराचारी पुरुष लोक और समाज में निन्दित होता है, वह सदा दुःखी रहता है, रोगी रहता है और अल्पायु होता है। जो पाप कर्म करता है, वह उनके फलस्वरूप दरिद्र होता है, तथा क्लेश, दुःख, संताप, भय, संकट और रोगों से घिरा रहता है और अन्त में बेमौत मरता है।' -योगशास्त्र प्र. २ श्लो. १९ १. पंगु-कुष्टि-कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसा फलं सुधीः। नीरागस्त्रसजन्तूनां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥ २. चरक-संहिता ३. (क) आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । दारिद्र्य-दुःख-रोगानि बन्धन व्यसनानि च । (ख) पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा । पापेन जायते दैन्यं, दुःखं शोको भयंकरः।। दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःख भागी च सततं, व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ -चाणक्य नीति -मनुस्मृति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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