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________________ कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ? १७३ अशुद्धि के बाद फिर शुद्धि के उतार चढ़ाव के दौर में चलता रहेगा। यह कहाँ का सिद्धान्त है कि शुद्धि के बाद फिर अशुद्धि आ जाए। वस्तुतः उसे शुद्धि ही नहीं कहना चाहिए ।' ज्ञानसार में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है - जो साधक समता - कुण्ड में स्नान करके अनन्त - अनन्त काल के लिए कषाय तथा रागद्वेषादि जनित कर्मकृत मल को धो डालता है; वह फिर कभी अशुद्ध (मलिन) नहीं होता । वास्तव में, वह अन्तरात्मा ही परम शुद्ध विमल है। २ कर्म पहले था, आत्मा बाद में? यह भी ठीक नहीं यदि कहा जाये कि कर्म पहले से ही था, आत्मा बाद में आकर खड़ा हो गया, तब यह प्रतिप्रश्न होगा कि आत्मा (जीव) के बिना कर्म किया किसने ? चूंकि आत्मा तो पहले था नहीं, जिसके द्वारा किये जाने से वह 'कर्म' कहलाता। फिर कर्म की सत्ता और कर्म की 'कर्म संज्ञा' आत्मा से पहले हो ही कैसे सकेगी ? अर्थात् आत्मा के द्वारा किये बिना कर्म ही कैसे कहलाएगा ? दूसरी बात - 'कर्म पहले और आत्मा बाद में,' इस मन्तव्य के अनुसार यह मानना पड़ेगा कि आत्मा ने भी एक दिन जन्म लिया। आत्मा भी एक उत्पन्न- विनष्ट होने वाला पदार्थ हुआ। संसार का यह नियम है कि जिसका जन्म होता है, उसका मरण भी अवश्य होता है, परन्तु आत्मा के उत्पन्न- विनाश या जन्म-मरण का विचार भारत के किसी भी आस्तिक दर्शन को मान्य नहीं है। सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा को एकस्वर से अजन्मा, नित्य, अविनाशी और शाश्वत माना है । " ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति में जैनदर्शन के महामनीषियों ने 'आत्मा और कर्मी, इन दोनों में पहले कौन और पीछे कौन ? यह गुत्थी दोनों को अनादि, तथा दोनों के सम्बन्ध को भी अनादि कहकर सुलझा दी है। १. (क) कर्ममीमांसा पृ. १७ (ख) कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. १३ यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलनं मलम् । पुनर्नयाति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ।। - ज्ञानसार (उपाध्याय यशोविजय जी) विद्याष्टक ५ . कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. १४ (क) वही पृ. १४ (ख) जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।' - गीता (ग) अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराण......... -. गीता For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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