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________________ १७२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) का कोई कारण ही नहीं था, तब बिना ही कारण के कर्म कहाँ से कब और कैसे लग गए ? कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता। ऐसी स्थिति में कर्म के कारणभूत रागद्वेषादि के अभाव में शुद्ध आत्मा के साथ कर्म का संयोग क्यों और कैसे हो गया ? अगर कहें कि आत्मा के साथ कर्म यों ही लग गए तब तो यों ही, बिना कारण के आकाश, पाषाण, दीवार आदि जड़पदार्थों के भी कर्म लग जाने चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता। अतः कर्म से पूर्व अस्तित्व में आये हुए आत्मा के अकृत कर्म लगना तो कार्य-कारण नियम के विरुद्ध है। कहा भी है “यदि जीव (आत्मा) को पहले कर्मरहित मान लिया जाए तो उसके बन्ध का अभाव हो जाएगा। और शुद्ध आत्मा के भी कर्मबन्ध मानने पर उसकी मुक्ति कैसे होगी ? पंचाध्यायीकार का आशय यह है कि पूर्व-अशुद्धता के बिना बन्ध नहीं होता। पूर्व में शुद्ध जीव के भी कर्मबन्ध मान लेने पर निर्वाण-प्राप्ति असंभव हो जाएगी। जब शुद्ध जीव के भी कर्म बंधने लगेगा, तब संसारचक्र बार-बार चलते रहने से मुक्ति कभी नहीं हो सकेगी।" शुद्धि और अशुद्धि का क्रम कैसे टूटेगा ? अगर विशुद्ध आत्मा के अकस्मात् ही कर्म लग जाते हैं, ऐसा माना जाएगा, तब तो तप, त्याग, संयम, वैराग्य, एवं रत्नत्रयरूप धर्म एवं क्षमादि दशविध उत्तम धर्म की साधना का क्या अर्थ रहेगा ? और कर्मों के बन्ध और मोक्ष की दूरगामी व्यवस्था भी कैसे बनेगी ? एक ओर, लोग तप, संयम आदि की साधना करके कर्ममल को धोकर आत्मा को विशुद्ध बनाएँगे, दूसरी ओर उनकी विशुद्ध हुई आत्मा पर भी कर्म अकस्मात् चिपटते रहेंगे। यह तो हस्तिस्नानवत् क्रिया हो जाएगी। जैसे हाथी सरोवर में नहा कर अपने शरीर को स्वच्छ करता है, फिर कुछ देर के बाद ही वह अपने शरीर पर कीचड़ उछाल कर उसे गंदा कर देता है। हाथी की तरह आत्मा के ऐसे शुद्धीकरण से क्या लाभ हुआ ? पूर्वोक्त साधना का अन्तिम प्रयोजन तो कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ। एक बार आत्मा विशुद्ध हुई, उसके फिर कर्ममैल लगा और फिर वही अशुद्धि आ धमकी। फिर तो आत्मा और कर्म की यह परम्परा सदा-सदा के लिए चलती रहेगी, इस परम्परा के टूटने का अवसर कदापि नहीं आएगा। ऐसी स्थिति में प्रत्येक जीव शुद्धि के बाद अशुद्धि और १. कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. १२ २. तद्यथा यदि निष्कर्मा जीवः प्रगेव तादृशः । बन्धाभावेऽथ शुद्धेऽपि बन्धश्चेन्निर्वृतिः कथम् ?-पंचाध्यायी २/३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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