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________________ १५०. कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) कई नाटक भी लिखे थे। उसकी माता के कथनानुसार वह ५ वर्ष की वय में कई छोटी-मोटी कविताएँ लिख लेती थी। उसके द्वारा लिखी हुई कुछ कविताएँ महारानी विक्टोरिया के पास थीं। उस समय उस बालिका का इंग्लिश भाषा का ज्ञान भी आश्चर्यजनक था। वह कहती थी-"मैं अंग्रेजी पढी नहीं हूँ, किन्तु उसे जानती जरूर हूँ।" इन विलक्षणताओं का मूल कारण : आनुवंशिकता आदि नहीं ये और इस प्रकार के कई विलक्षण बालक आये दिन देखने को मिलते हैं, जो चलते-फिरते ज्ञानकोश हैं, अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी हैं। इन संबं विलक्षणताओं पर विचार करने से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इस जन्म में देखी जाने वाली ये सब विलक्षणताएँ न तो वर्तमान जन्म की कृति (करणी) का ही फल हैं, और न माता-पिता के आनुवंशिक संस्कारों का परिणाम हैं, और न ही वातावरण या परिस्थिति में किसी विद्यमान विशेषता का ही यह परिणाम है। वज्रस्वामी को प्रखर शास्त्रीय ज्ञान : पूर्वजन्मकृत कर्म का परिणाम आचार्य वज्रस्वामी जब छोटे-से शिशु थे, वे पूर्वजन्म के संस्कारवश माता के पास न रहकर आचार्यश्री के पास विरक्त बनकर आ गये थे। अभी उनकी मुनिदीक्षा नहीं हुई थी। एक श्राविका उनका पालन-पोषण करती थी। वह श्राविका जब बालक वज्र को साध्वियों के पास ले जाती, वहाँ साध्वियाँ उस समय जो शास्त्रों का स्वाध्याय एवं अध्ययन-अध्यापन करती थी, उसे पालने में लेटे-लेटे वज्रकुमार सुनते रहते थे। इस समय का ग्रहण किया शास्त्रज्ञान उन्होंने अपनी प्रखरबुद्धि से तथा पदानुसारिणीलब्धि से इतना पल्लवित किया कि बाद में अल्पवय में दीक्षित होने पर एवं गुरु से शास्त्रवाचना न लेने पर भी वे शास्त्रों की विस्तृत व्याख्या करने लगे। यहाँ तक कि गुरुजी की अनुपस्थिति में वे ही अन्य सब साथी साधुओं को शास्त्र की वाचना दे देते थे। वज्रस्वामी को इतने विशालज्ञान की उपलब्धि आनुवंशिक या पारिपार्श्विक वातावरणजन्य नहीं थी किन्तु पूर्वजन्मकृत कर्म के क्षयोपशम के कारण हुई थी। ये स्वभावगत एवं भावनात्मक विलक्षणताएँ भी कर्मकृत हैं, आनुवंशिक नहीं बौद्धिक विलक्षणताओं के अतिरिक्त ऐसी भी स्वभावगत, एवं . भावनात्मक विलक्षणताएँ देखने में आती हैं, जो उन बालकों के माता-पिता .१ प्रथम कर्मग्रन्य प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) पृ. ३४ । २. जैन जगत के ज्योतिर्धर आचार्य-(उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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