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________________ कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य. १३७ शैक्सपियर ने भी अपने नाटक 'एज यु लाइक इट' में इसी तथ्य का समर्थन किया है। इस प्रकार विश्व के प्राणियों (जीवों) का वैचित्र्य कर्मकृत सिद्ध होता है। विश्ववैचित्र्य ईश्वरकृत सिद्ध नहीं होता ___ कई लोग विश्ववैचित्र्य को कर्मकृत स्वीकार करते हुए भी कहते हैं कि आत्मा (जीव) अज्ञ है, अनाथ है, इसलिए समस्त जीवों (आत्माओं) के सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकादि एवं गमनागमन सब ईश्वरकृत हैं। ईश्वर ही जगत् के वैचित्र्य का कर्ता, धर्ता, हर्ता है । वैदिक संस्कृति के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है। वस्तुतः ईश्वरकर्तृत्ववादी जितने भी दर्शन या ईसाई, इस्लाम आदि मजहब हैं, वे सब ईश्वर को केन्द्रबिन्दु मानकर चलते हैं। वे मानते हैं कि जीव की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति का नियामक ईश्वर है। उसकी इच्छा या प्रेरणा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। आप्तपरीक्षा में इसका निराकरण करते हुए कहा गया है कि यह भावसंसार काम, क्रोध, अज्ञान, मोहादिरूप विभिन्न स्वभाववाला है, उसके सुख-दुखादि सद्कार्य में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। अतः भिन्न स्वभाव वाले पदार्थ या जगत् एक स्वभाव (शुद्ध आत्म-स्वभाव) वाले ईश्र्वर से उत्पन्न नहीं हो सकते। जिस वस्तु के All the world's a stage; And all the men and women merely players; They have their exits and their entrances; And one man in his time plays many parts.---'As You Like It'Act II, Scene VII २ (क) अण्णाणी हु अणाहो अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च। सग्गं निरय गमणं सव्व ईसरकयं होदि।-गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) श्लो. ८०० (ख)- अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।-महाभारत वनपर्व ३०/२८ (ग) कर्मवाद : एक अध्ययन, पृ. ३ ३ (क) अष्टसहस्री पृ. २६८-२७३ ... (ख) नैकस्वभावेश्वरकारणकृतं (भुवनादि) विचित्रकार्यत्वात्। -आप्तपरीक्षा ९/५१-६८ (ग) "संसारोऽयं नैकस्वभावेश्वरकृतः, तत्कार्य-सुखदुःखादि वैचित्र्यात्। - नहि कारणस्यैकरूपत्वे कार्य-नानात्वं युक्त शालिबीजवत्।" - अष्टशती (घ) इस सम्बन्ध में विशद चर्चा के लिये देखिये-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, स्याद्वादमंजरी, प्रमेयंकमलमार्तण्ड, रत्नाकरावतारिका आदि ग्रन्थ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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