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१३६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
सैर करते हैं, जिन्हें भरपेट दूध-रोटी मिलती है । भूतपूर्व पटियाला नरेश ने अपने यहाँ कई कुत्ते पाल रखे थे। उनकी सेवा के लिए आदमी तैनात कर रखे थे । उनको राजसी ठाठ से रखा जाता था। कई अंग्रेजदम्पती भी अपने यहाँ कुत्ते पालते हैं । कई राजाओं को घोड़ों को उत्तम ढंग से पालने और प्रशिक्षित करने का शौक था। न्यायमंजरीकार जयंतभट्ट ने पशु-पक्षियों की विषमता कर्ममूलक प्रस्तुत करते हुए कहा है-"कोई-कोई चूहे आदि अत्यन्त लोभी होते हैं । वे अहर्निश पदार्थों का संग्रह करने में तत्पर रहते हैं। तथा कई कबूतर आदि विशेष कामुक होते हैं । यह विचित्रता भी' अदृष्ट (कम) कृत है।"२ जैनधर्म के ज्योतिर्धर दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र भी इसी चिन्तन को प्रस्तुत कर रहे हैं-"जीव की काम, क्रोध, सुख-दुःख आदि विविध अवस्थाएँ अपने द्वारा बद्ध कर्म के अनुरूप ही होती हैं।" - अतः कर्म का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए ये सब अकाट्य प्रमाण एवं तर्क ही पर्याप्त हैं। जागतिक रंगमंच पर विभिन्न जीवों के द्वारा विचित्र कर्मकृत अभिनय
निष्कर्ष यह है कि तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह जगत् एक रंगमंच के समान प्रतीत होगा। यहाँ जीव (आत्माएँ) विविध चित्र-विचित्र वेश धारण करके नाटक खेलते हैं, अपना अभिनय दिखाते हैं, तथा अपना-अपना पार्ट अदा करते हैं । अपना-अपना खेल दिखाने के पश्चात् वे वेष बदलते हैं । "जो कुछ खेला जा रहा है, वह हमारे सामने है। परन्तु सब कुछ सामने (प्रत्यक्ष) नहीं है । कुछ पर्दे के पीछे है । सामने जो कुछ हो रहा है, वह भी चित्र-विचित्र है । पर्दे के पीछे पृष्ठभूमि में जो अभिनय हो रहा है, वह बड़ा विचित्र है ।" .
".....कर्म एक ऐसा अभिनेता है, जो पर्दे के पीछे निरन्तर अभिनय कर रहा है । सोते-जागते, दिन और रात में, वह निरन्तर क्रियाशील रहता है। यही कारण है कि बार-बार वेष-परिवर्तन और अभिनय-परिवर्तन कर्म-विपाक के अनुसार हुआ करता है । प्रायः सभी आस्तिक दर्शन और विशेषतः जैनदर्शन इस तथ्य से सहमत हैं । प्रसिद्ध पाश्चात्य नाटककार
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१ कर्मग्रन्थ पंचम (प्रस्तावना) (पं. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री)
तथा च केचिज्जायन्ते लोभमात्र-परायणाः । द्रव्य-संग्रहणैकाग्रमनसो मूषिकादयः ।
मनोभावमयाः केचित् सन्ति पारावतादयः ॥ -न्यायमंजरी पृ. ४२ ३ कामादि प्रभवश्चित्तं कर्मबन्धानुरूपताः । -आप्तमीमांसा ४ (क) महाबन्धो भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) पृ. ५५
(ख) कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) पृ. १५७, १६१
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