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________________ १०२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) लालसा-आकांक्षा अथवा प्रबल ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, वैर - विरोध, द्रोह, नियाणा आदि होता है। ऐसे ही व्यक्ति व्यन्तरजाति के देवों में से भूत, प्रेत, पितर, यक्ष, राक्षस आदि किसी भी योनि में अपने पूर्वकृत कर्मानुसार मरकर जन्म लेते हैं। जन्म लेने के पश्चात् भी पूर्वोक्त जीव अपनी अतृप्त आकांक्षा के कर्म-फलानुसार पूर्वोक्त वस्तु, व्यक्ति या स्थान विशेष के आस-पास चक्कर लगाते रहते हैं, या वहीं अपना अड्डा जमा कर बैठते हैं। ' व्यन्तर जाति के इन्हीं देवों को प्रेतात्मा, पितर, भूत, यक्ष, राक्षस आदि विविध रूपों में सम्बन्धित मनुष्यों से पुनः पुनः सम्पर्क करते देखा सुना जाता है। अतृप्त आकांक्षाओं का उद्वेग मरने के बाद भी चैन से बैठने नहीं देता। ये वैक्रिय शरीरधारी होने से मनचाहा रूप बना सकते हैं, अथवा वे अदृश्य रहकर अपनी इच्छापूर्ति के लिए किसी दूसरे के माध्यम से बोलकर अथवा दूसरे के शरीर में प्रवेश करके अपनी उपस्थिति और इच्छा व्यक्त करते रहते हैं। कुछ लोगों के अकालमृत्यु प्राप्त पारिवारिक जन पितर बन जाते हैं या प्रेतयोनि (व्यन्तरजाति के देवों) में जन्म ले लेते हैं। ऐसे पितर या प्रेत दो प्रकार के होते हैं। जिनके प्रति श्रद्धा या प्रतीति होती है, अथवा मन में आदरभाव होता है, या जिनके साथ पूर्वजन्म में मित्रता, अनुराग, या प्रीति होती है, ऐसे पितर तो हितैषी एवं सहायक होते हैं। दूसरे ऐसे पितर होते हैं, जिन्हें पारिवारिक जनों या अमुक परिवार या व्यक्ति से कष्ट पहुँचा है, अथवा उनकी अवज्ञा- अनादर या उपेक्षा हुई है, उनसे वे बदला लेते हैं, उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनके कार्यों में विघ्न डालते हैं, उनको हानि पहुँचाते हैं। कई लोगों को प्रेतात्मा या मृतात्मा प्रत्यक्ष भी दिखाई देते हैं और कई अदृश्य रहकर किसी दूसरे के मुँह से बोलते हैं। जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के पूर्णतः या अंशतः आराधक होते हैं, वे मरकर या तो उच्चजाति के सम्यग्दृष्टि देव बनते हैं, या फिर सद्भावनाशील भवनपति या व्यन्तरजाति के सम्यग्दृष्टि देव बनते हैं। वे धर्मनिष्ठ लोगों की सहायता करते हैं, उनकी परीक्षा भी करते हैं, उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर वे उन धर्मात्माओं के चरणों में नतमस्तक' होते १ अखण्ड ज्योति जुलाई १९७७ में 'अतृप्त आकांक्षाओं से पीड़ित भूत-प्रेत,' लेख से सारांश पृ. २७ २ (क) वही, जुलाई १९७७ के लेख से पृ. २७ (ख) संलेखनाव्रत के ५ अतिचारों से तुलना करें - " जीवित- मरणाशंसासुखानुबन्ध-मित्रानुराग-निदान करणानि ।" - तत्त्वार्थ सूत्र अ. ७, सूत्र ३२ ३ देखिये : राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव का प्रकरण, उपासकदशांगसूत्र में चुलनी - पिता व कामदेव श्रावक की देव द्वारा परीक्षा का प्रकरण 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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