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________________ ८८ - कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) न दे सकीं। भ. महावीर या तथागत बुद्ध के विकास में उनका राजकीय ऐश्वर्य या धन कोई भी सहायता नहीं कर सका। इन सब महान् आत्माओं के व्यक्तित्व की वास्तविक विशेषताएं पूर्वजन्मकृत ही थीं। यही कारण है। कि उन्होंने इस जीवन में कठोर से कठोर अप्रत्याशित विपत्ति, संकट, एवं विघ्न-बाधा को पूर्वजन्मकृत कर्मफल (प्रारब्ध का भोग) मानकर धैर्यपूर्वक समभाव से सहन की। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इन्हें भावी उत्कर्ष हेतु पूर्ण विश्वास के साथ आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देता था। ___ अतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व की सिद्धि कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करती है, दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। पुनर्जन्म सम्बन्धी मिथ्या मान्यता और भ्रान्ति . . पूर्वजन्म के प्रति यह विवेकमूढता, और मिथ्यामान्यता है कि लोग दुःखग्रस्त, या आर्थिक दृष्टि से स्वेच्छा से निर्धन को पिछले जन्म का पापी और वर्तमान में सुविधासज्जित, आडम्बरपरायण, धनकुबेरों या सत्ताधीशों को विगत जन्म का पुण्यात्मा मान बैठते हैं। ये मापदण्ड मिथ्या है। इन मापदण्डों से तो श्रीराम, भगवान महावीर, तथागत बुद्ध, त्यागी सा साध्वी, संन्यासी, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गान्धी, सन्त विनोबा आदि पुनीत पुरुष अभागे, महापापी; तथा अत्याचारी, भोगी-विलासी, धनपति या सत्ताधीश महान् पुण्यात्मा सिद्ध होंगे। परन्तु कोई भी धर्म, दर्शन या विचारशील मत इसे मानने को तैयार न होगा। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि अतः पुनर्जन्म के सिद्धान्त की उपयोगिता और अनिवार्यता को तथा जन्म-जन्मान्तर से चले आने वाले कर्मप्रवाह को तथा कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की आवश्यकता है। इसे भलीभांति हृदयंगम करने पर ही जीवन की दिशाधारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही भूल से चुभे कांटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और घावों को भरना चाहिए। अपने जीवन में त्याग, तप, संयम, संवर, तथा क्षमादि दस धर्मों को अपनी अमूल्य उपलब्धि मानकर उन्हें संरक्षित ही नहीं, परिवर्द्धित करने का अभ्यास सतत जारी रखना चाहिए। रत्नत्रय की साधना के पथ पर बढ़ते रहा जाए तो उसके सुपरिणाम इस जन्म में नहीं तो अगले जीवन में भी मिलते हैं. इस तथ्य को मन-मस्तिष्क में जमा लिया जाए तो आत्मिक-विकास मे कदापि आलस्य-प्रमाद की मनोवृत्ति पनप नहीं पाएगी। विलम्ब से भी श्रेष्ठता की दिशा में उठाया गया कदम कभी निराशोत्पादक नहीं होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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