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________________ कर्म - अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - २ .८७ और जन्मान्तर की आत्मा एक ही रहती है । कृत-कर्मानुसार उसकी पर्याय बदलती है।' अतः इस अयथार्थ आक्षेप का निराकरण हो जाता है। पुनर्जन्म-सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का प्रतिपादक पूर्वजन्म के सम्बन्ध में भी आज कुछ भ्रान्तियाँ, अन्धविश्वास और मिथ्या धारणाएँ लोगों के दिल-दिमाग में जमी हुई हैं। जो पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की महत्ता का प्रतिपादक था, वह आज अन्धनियतिवाद, निष्क्रियवाद एवं चमत्कारवाद का प्रतीक बन गया है। पुनर्जन्म को न मानने वाले अधिकांश लोग प्रारब्ध या आकस्मिक विशेषता को पूर्वकृत कर्मफल न मानकर अकारण या व्यवस्थाविहीन चामत्कारिक मानते हैं। यों देखा जाए तो पुनर्जन्म सिद्धान्त में प्रारब्ध (पूर्वकृत) कर्म का अपना विशेष महत्त्व है। परन्तु प्रारब्ध किसी चमत्कार का परिणाम नहीं, और न ही उसके फल में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है। इन विलक्षणताओं का कारण पूर्वजन्मकृत कर्म ही हैं निःसन्देह ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें जन्म से ही अनेक विलक्षणता प्राप्त होती हैं, या जो प्रचलित लोकप्रवाह से अप्रभावित तथा अपनी ही विशेषता से प्रतिभासित देखे जा सकते हैं। इन और ऐसी ही विशेषताओं का कारण भी दैवी चमत्कार नहीं, अपितु पिछले जन्म या जन्मों में वैसे विकास हेतु उनके स्वयं के द्वारा कृत कर्म-क्षय का या शुभ कर्म उपार्जन का पुरुषार्थ होता है। पुनर्जन्मसिद्धान्त का आधार वस्तुतः पूर्वजन्म में कृतकर्मक्षय या शुभकर्म के फलस्वरूप उपलब्ध शुभ या शुद्ध परिणाम-संस्कार ही पुनर्जन्मसिद्धान्त का आधार है। भावसंवेदनाएं, आस्थाएं, शुद्ध - अशुद्ध चिन्तन की दिशाएं और स्वभाव ही कार्मणशरीर के रूप में परिणत होकर अगले जन्म में संस्काररूप में साथ रहते हैं, साधन-सामग्रियाँ या सुविधाएँ नहीं । कर्मयोगी श्रीकृष्ण के विकास में जन्म-काल और बाल्यकाल में कई विघ्न बाधाएँ, विपत्तियाँ, संकट की घन-घटाएँ घिरी हुई थीं, किन्तु पूर्व-जन्मकृत शुभकर्मों की प्रबलता के कारण उनमें साहस, शौर्य, उत्साह, कर्मयोग आदि गुणों का स्वतः विकास होने लगा और वे अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ते गए। अयोध्या की राजकीय सुख-सुविधाएँ श्रीराम को रावण- विजय में रंचमात्र भी सहयोग १. (क) 'कत्तारमेव अणुजाइ कम्म' (ख) पंचास्तिकाय, गा. १७-१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन १३ / २३ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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