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प्रणिधान में शुभ की प्रार्थना की जाती है। अशुभ की याचनां निदान - आर्तध्यान विशेष होता है। प्रणिधान शुभ मनोरथ रुप होने से कुशल प्रवृत्ति
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आदि का हेतु है, निदान रुप नही है ।
प्रणिधान - चैत्यवंदन बोधि की प्रार्थना समान है। लोगस्स सूत्र में आरुग्ग बोहिलाभं आदि से भगवान के पास सम्यग्दर्शनादि की प्रार्थना करने में आयी है । यह निदान रुप नही है, शुभ भाव हेतु का जनक; प्रशस्त अध्यवसाय का कारण है। जैसे- बोधि लाभ की प्रार्थना शुभ भाव का कारण (जनक) होने से निदान रुप नही है, वैसे ही यह प्रणिधान शुभ प्रार्थना भी शुभ का कारण होने से निदान रुप नही है । यदि प्रणिधान निदान रुप होता तो चैत्यवंदन के अन्त में प्रणिधान नही हो सकता, क्योंकि शास्त्रों में निदान का निषेध किया है ।
प्र.539 प्रणिधान निदान नही है इसे प्रमाणित ( सिद्ध ) कीजिए ? उ. "मोक्खं ग पत्थणा इय, णणियाणं तदु चियस्स विण्णेयं । सत्ताणु मइत्तो जह, वोहीए पत्थणा माणं ॥ "
मोक्ष मार्ग में निवृत्ति करण हेतु प्रार्थना (आशंसा) निदान नही हैं, क्योंकि राग दशा में स्थित साधक की यह बोधि लाभ की प्रार्थना आगम संगत है । लोगस्स सूत्र में "बोहिलाभं" अर्थात् जिनोक्त (जिन धर्म) धर्म की प्राप्ति की कामना (याचना) की गई है यह प्रमाण है । लोगस्स सूत्र गणधर भगवंत द्वारा रचित है । यदि मोक्ष के कारणों की प्रार्थना आगम संगत नही होती तो बोधि लाभ की याचना गणधर भगवंत कभी नही करते । इसलिए यह सिद्ध होता है कि प्रणिधान निदान नही है, बल्कि यह प्रार्थना है जो आगम संगत है ।
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दशम प्रणिधान त्रिक
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