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________________ कर्मप्रकृति १ संज्वलनक्रोधमानमायालोभकषायाणां चतुष्कं ४ हास्य-रत्यरति-शोक-मय-जुगुप्सा-स्त्रीवेद-पुंवेद-नपुंसकवेदा नव नोकषायाः ९ दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्यान्तरायाः पञ्च ५ इति षड्विंशति: २६ देशघातीनि भवन्ति ॥११॥ घातिनां सर्वघाति-देशघातिभेदी प्ररूप्य अघातिनां प्रशस्ताप्रशस्तभेदप्ररूपणे प्रशस्तप्रकृतीर्गाथाद्वयंनाऽऽह सादं तिण्णेवाऊ उच्चं सुर-गरदुगं च पंचिंदी। देहा बंधण संघादंगोबंगाई वण्णचऊ ॥१११॥ समचउर वञ्जरिसह उवधादृणगुरुछक्क सग्गमणं । तसबारसट्ठसट्ठी बादालमभेददो सत्था ॥११२॥ गाथाद्वयरचना-सा १ । श्रा ३ । उ । म २ । सु २। पं । दे ५। बं ५। सं ५ अं३। व ४ । भेदे ब २० । स १ । व १ । अगु ५ । स १ । तस १२ । भेद ६८ । अभेद ४२ । सातावेदनीयं १ तिर्यग्मनुष्यदेवायूंषि त्रीणि ३। उच्चैर्गोत्रं नरगति-नरगत्यानुपूये द्वे २ देवगतिदेवगत्यानुपूर्व्यद्विकं २ पञ्चेन्द्रियं १ औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणानि पञ्च शरीराणि ५ औदारिकादिपञ्च बन्धनानि ५ औदारिकादिपञ्चसंघातानि ५ औदारिकाङ्गोपाङ्गवैक्रियिकाङ्गोपाङ्गाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गानि बीणि ३ शुभवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाश्चत्वारः ४ समचतुरस्रसंस्थानं १ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ अगुरुलघुपरघातोच्छवासाऽऽतपोद्योताः ५ प्रशस्तविहायोगतिः १ त्रस १ बादर २ पर्याप्त ३ प्रत्येकशरीर ४ स्थिर ५ शुम ६ सुभग ७ सुस्वरा ८ देय १ यशःकीर्ति १० निर्माण ११ तीर्थकराणोति १२ सद्वादशकं एवं अष्टषष्टिः ६८ प्रकृतयो भेदविवक्षया प्रशस्ता भवन्ति । अभेदविवक्षायां द्विचत्वारिंशत् ४२ प्रकृत यो भवन्ति । 'सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्य'मित्युक्ता एवेत्यर्थः ॥१११-११२॥ भावार्थ-ये सर्वघाती प्रकृतियाँ अपने प्रतिपक्षभूत गुणोंका सम्पूर्ण रूपसे घात करती हैं इसलिए इन्हें सर्वघाती कहते हैं। अब देशघाती प्रकृतियोंको गिनाते हैं केवलज्ञानावरणको छोड़कर ज्ञानावरणकर्मकी शेष चार प्रकृतियाँ, पूर्वोक्त ६ भेदोंके सिवाय दर्शनावरणकी शेष तीन प्रकृतियाँ, सम्यक्त्वप्रकृति, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ, हास्यादि नौ नोकषाय और अन्तरायकी पाँचों प्रकृतियाँ ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं ॥११ भावार्थ-इन प्रकृतियोंके उदय होनेपर भी जीवका गुण कुछ न कुछ अंशमें प्रकट रहता है इसलिए इन्हें देशघाती कहते हैं। इस प्रकार घातियाकर्मोंके भेद कहकर अब अघातिया कर्मों के जो प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो भेद हैं उनमें से पहले प्रशस्त प्रकृतियोंको बतलाते हैं सातावेदनीय, तिथंच, मनुष्य और देव ये तीन आयु उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अंगोपांग, शुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श इन चारके बीस भेद, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघातके विना, अगुरुलघु आदि ६ प्रकृतियाँ तथा प्रशस्तविहायोगति और त्रस आदिक वारह प्रकृतियाँ इस प्रकार अड़सठ प्रकृतियाँ भेद-विवक्षासे प्रशस्त ( पुण्यरूप ) कही हैं । किन्तु अभेद-विवक्षासे बियालीस प्रकृतियाँ ही पुण्यरूप कही गयी हैं ॥१११-११२।। १. त -वंगा य । २. ब अगुरुपटकस्य मध्ये उपघातो निराक्रियते । ३. गो. क. ४१-४२ । 1. तत्वार्थ - २५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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