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कर्म प्रकृति
थावर सुहुममपत्तंसाहारणसरीरमथिरं च ।
असुहं दुब्भग दुस्सर णादिज्जं अजसकित्तिति ॥ १०० ॥
स्थावर १ सूक्ष्मा २ पर्याप्त ३ साधारणशरीरा ४ स्थिरा ५ शुभ ६ दुर्भग ७ दुःस्वरा ८ नादेया ९ यशः कीर्तीति १० स्थावरदशसंज्ञं ज्ञातव्यम् । तन्निरुक्तिमाह – यन्निमित्तादेकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावरनाम १ । सूक्ष्मशरीरनिर्वर्त्तकं सूक्ष्मनाम २ । षडूविधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तनाम ३ । बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं भवति शरीरं यतस्तत्साधारणशरीरनाम ४ । तद्यथा
1 साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ १६॥ गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं शरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥१७॥
४८
कंदे मूले छल्लीपवालसालदल कुसुम फलबीए | समभंगे सदिगंता विसमे सदि होंति पत्तेया ॥ १८ ॥
स्वामी एक ही जीव हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीर के धातु-उपधातु यथास्थान स्थिर रहें, वह स्थिर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीर के अवयव सुन्दर हों, वह शुभ नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव दूसरोंका प्रीतिभाजन हो, वह सुभग नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे स्वर उत्तम हो, वह सुस्वर नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे शरीर में प्रभा-कान्ति हो, वह आदेय नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे यश फैले, वह यशः कीर्त्ति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीर के अंग- उपांग यथास्थान और यथाप्रमाण उत्पन्न हों, वह निर्माण नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव त्रिलोकपूजित तीर्थंकर पुदको पावे, वह तीर्थंकर नामकर्म है । आगम में उक्त १२ प्रकृतियोंकी संज्ञा त्रस द्वादशक है ।
स्थावरदशकका वर्णन -
स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति ये दश प्रकृतियाँ स्थावरदशक कहलाती हैं || १००॥
विशेषार्थ - जिस कर्म के उदयसे एकेन्द्रिय जीवोंमें जन्म हो, वह स्थावर नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे अन्यको बाधा नहीं करनेवाला और वज्रपटलके द्वारा भी नहीं रोके जानेवाला ऐसा सूक्ष्म शरीर उत्पन्न हो, वह सूक्ष्म नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव अपने योग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण न कर सके, वह अपर्याप्त नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे अनेक जीवोंके उपभोग योग्य शरीर की प्राप्ति हो अर्थात् अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी हों वह साधारण शरीर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीर के धातु और उपधातु स्थिर न रह सकें, वह अस्थिर नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे शरीर के अवयव सुन्दर न हों, वह अशुभ नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे जीव रूपादि गुणोंसे युक्त होनेपर भी अन्य का प्रीतिपात्र न हो सके, वह दुर्भग नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे गधे, ऊँट, गीदड़ जैसा बुरा स्वर मिले, वह दुःस्वर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीर प्रभा और कान्तिसे हीन प्राप्त हो, वह अनादेय नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे संसार में अपयश फैले, वह अयशः कीर्त्ति नामकर्म है । इन दश प्रकृतियोंकी आगम में स्थावरदशक संज्ञा है ।
1. ब इमाः गाथा न सन्ति । 2. पञ्चसं० १, ८२ । गो० जी० १९१ । 3. गो० जी० १८६ । 4. गो० जी० १८७ ।
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