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________________ कमप्रकृति तदातपोद्योतस्थानगाथामाह मूलुण्हपहा अग्गी आदावो होदि उण्हसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोवो' ।।१६।। मूले उष्णप्रभः अग्निः, उष्णसहितप्रभः आतपः। स चादित्य बिम्बोत्पन्नबादरपर्याप्त पृथ्वीकायतिरश्चि भवति । उष्णरहितप्रभः शीतलप्रभ उद्योतः । स चन्द्रखद्योतादिषु भवति ॥९६॥ तस थावरं च बादर सुहुमं पचत्त तह अपज्जत्तं । पत्तेयसरीरं पुण साहारणसरीर थिरमथिरं ॥१७॥ सुह असुह सुहग दुब्भग सुस्सर दुस्सर तहेव णायव्वा । आदिजमणादिजंजस अजसकित्ति णिमिण तित्थयरं ॥८॥ सप्रकृतिनाम १ स्थावर प्रकृतिताम २ बादरप्रकृतिनाम ३॥ सूक्ष्मप्रकृतिनाम ४ पर्याप्तप्रकृतिनाम ५ तथा अपर्याप्त प्रकृतिनाम ६ प्रत्येकशरीरनाम ७ पुनः साधारणशरीरप्रकृतिनाम ८ स्थिरप्रकृतिनाम ९ अस्थिरप्रकृतिः १० शुभनाम ११ अशुभनाम १२ सुभगनाम १३ दुर्भगनाम १४सुस्वरनाम १५दुःस्वरनाम १६ तथैव आदेयनाम १७ अनादेयनाम १८ यश:कीर्तिनाम १६ अयशःकीर्तिनाम निर्माणनाम २१ तीर्थकरनाम २२ इति ज्ञातव्याः ॥९७.९८॥ तस बादर पज्जत्तं पत्तेयसरीर थिर सुहं सुभगं । सुस्सर आदिज्ज पुण जसकित्ति निमिण तित्थयरं ॥१६॥ [तसद्वादसयं] त्रस १ बादर २ पर्याप्त ३ प्रत्यकशरीर ४ स्थिर ५ शुभ ६ सुभग ७ सुस्वर ८ आदेय ९ यशः अब अग्नि, आतप और उद्योत प्रकृतिम अन्तर बताते हैं अग्निकी मूल और प्रभा दोनों उष्ण होते हैं अतः अग्निके उष्ण स्पर्शनामकर्मका उदय जानना चाहिए। किन्तु जिसके आतप नामकर्मका उदय होता है उसका मूल तो शीतल होता है पर प्रभा उष्णतासहित होती है। इस आतपनामकर्मका उदय सूर्यके बिम्बमें उत्पन्न हुए बादरपर्याप्त पृथ्वीकायिक तिर्यच जीवोंके होता है । जिसके उद्योतनामकर्मका उदय होता है उसका मूल और प्रभा ये दोनों ही उष्णतारहित अर्थात् शीतल होते हैं। इस नामकर्मका उदय चन्द्रबिम्बमें उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीकायिक जीवोंमें तथा खद्योत ( जुगुनू ) आदि विशेष तिर्यंचोंमें होता है ॥९६।। अपिण्ड प्रकृतियोंका निरूपण त्रस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर-साधारणशरीर, स्थिर-अस्थिर शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थकर ये शेष अपिण्ड प्रकृतियाँ जानना चाहिए ।।९७-६८।। त्रस द्वादशकका निरूपण वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर इन बारह प्रकृतियोंको त्रस-द्वादशक कहते हैं ।।६।। १. गो० क० ३३ । २. त आदेज्जमणादेज्जं । ३. त सुहगं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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