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________________ ४५ प्रकृतिसमुत्कीर्तन एदा चउदस पिंडा पेयडीओ वण्णिदा समासेण । एत्तो' अपिंडपयडी अडवीसं वण्णइस्सामि ॥१४॥ एताश्चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः १४ समासेन वर्णिताः । अतः परं अपिण्डप्रकृतिरष्टाविंशतिः २८ ताः वयं वर्णयिष्यामः ॥९॥ अगुरुलहुग उवघादं परघादं च जाण उस्सासं । आदावं उज्जो छप्पयडी अगुरुछक्कमिदि ॥६॥ अगुरुलघुकं १ उपघातः २ परघातः ३ उच्वासः ४ आतपः ५ उद्योतः ६ इति षट प्रकृतयः । एतासां आगमै 'अगुरुषट्कसंज्ञा' [इति हे शिष्य त्वं जानीहि ।२०७२।०२। यस्योदयात् अयःपिण्डवत् गुरुत्वात् न च पतति, न चार्कतूलवत् लघुत्वादृवं गच्छति तदगुरुलघुनाम १। उपत्य घात इत्युपघातः, आरमघात इत्यर्थः। यस्योदयादात्मवातावयवा महाशृङ्ग लम्बस्तन-तुन्दोदरादयो भवन्ति, तदुपघातनाम शपरेषां घात: परघातः । यदुदयात्तीक्ष्णशृङ्ग-नखविषसर्पदाढादयो भवन्ति अवयवास्तत्परघातनाम ३॥ यद्धेतुरुच्छ्वासस्तदुच्छ व सनाम ४। यदुदयात् निवृत्तमातपनं तदातपनाम ५। तदप्यादित्यबिम्बोत्पन्नबादरपर्याप्त पृथ्वीकायिकजीवेष्वेव वर्तते । यस्योदयात् उद्योतनं तदुद्योतनाम । तञ्चन्द्र खघोतादिषु च वर्तते ॥१५॥ इस प्रकार उपर्युक्त चौदह पिण्डप्रकृतियाका सभेपर्स वर्णन किया। अब इससे आगे अट्ठाईस अपिण्ड प्रकृतियोंका वर्णन करेंगे ॥१४॥ अगुरुलघुषट्कका स्वरूप अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत । इन छह प्रकृतियोंको अगुरुपटक जानना चाहिए ।।९।। विशेषार्थ-जिस कर्मके उदयसे जीवका शरीर लोहेके पिण्डसमान न तो भारी हो जो नीचे गिर जाय और न अर्क-तूल (आकड़ेकी रुई ) के समान इतना हलका हो कि आकाशमें उड़ जाय, ऐसे अगुरुलघु अर्थात् गुरुता-लघुतासे रहित शरीरकी प्राप्ति जिस कर्मके उदयसे होती है उसे अगरुलघ नामकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे अपना ही घात करनेवाले शरीरके अवयव हों, उसे उपघातनामकर्म कहते हैं। जैसे बारह सिंगेके सींग होना, पेटकी तोंद निकलना, भारी लम्बे स्तन होना आदि उपघातकर्मके उदयसे ही उत्पन्न होते हैं । जिस कर्मके उदयसे दूसरेके घात करनेवाले अवयव होते हैं, उसे परघातनामकर्म कहते हैं । जैसे शेर-चीते आदिको विकराल दाढ़ें होना, पंजेके तीक्ष्य नख होना, साँपकी दाढ़ और विच्छ्रको पूँछमें विप होना आदि । जिस कमके उदयसे जीव श्वास और उच्छ्वास लेता है उसे उच्छ्वासनामकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवका शरीर स्वयं उष्णता-रहित किन्तु प्रभा उष्णता-सहित प्रकाशमान होती है, उसे आतपनामकर्म कहते हैं । इस कर्मका उदय सूर्यमण्डलके पृथ्वीकायिक जीवोंके होता है। जिस कर्मके उदयसे स्वयं शीतल रहते हुए भी शरीरकी प्रभा भी शीतल एवं प्रकाशमान होती है, वह उद्योतनामकर्म है। उद्योत नामकर्मका उदय चन्द्र बिम्बके पृथ्वीकायिक जीवोंमें, जुगुनुओं में एवं अन्य भी तिर्यंचोंमें पाया जाता है। इन छह प्रकृतियांको आगममें 'अगुरुपदक' संज्ञा है, अर्थात् जहाँपर अगुरुषट्कका उल्लेख आवे वहाँपर उपयुक्त छह प्रकृतियोंको लेना चाहिए। १. त चोहस । २. पिंडप्पयडीओ। ३. आ इत्तो, त एत्तोऽपिंडप्पयडी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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