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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन सेवणय गम्म आदीदो चदुसु कप्पजुगलो त्ति । तत्तो दुजुगलजुगले कीलियणारायणद्धोति ॥ ८३ ॥ तेषां [ संहननानां ] कार्यमाह - सृपाटिकासंहननेन सौधर्मद्वयालान्तवद्वयपर्यन्तं चतुर्षु युगलेषु समुत्पद्यते । तत उपरि युग्म क्रमेण कीलिकार्धनाराचसंहननाभ्यामुत्पद्यते । तद्यथा - असंप्राप्तास्पाटिकासंहननेन षष्ठेन जीवेन सौधर्मस्वर्गमारभ्य कापिष्ठस्वर्गपर्यन्तं गम्यते । कीलिकासंहननेन पञ्चमेन जीवेन सहस्त्रारस्वर्गपर्यन्तं १२ गम्यते । चतुर्थेन अर्धनाराचसंहननेन अच्युतस्वर्गपर्यन्तं १६ गम्यते ॥८३॥ विजाणुदिसाणुत्तरवासीसु जंति ते णियमा । तिदुगेगे संहडणे णारायणमादिगे कमसो ||८४|| नाराचादिना संहननेन त्रयेण वज्रनाराचद्वयेन वज्रवृषभनाराचैकेन चोपलक्षिताः ते जीवाः क्रमशः अनुक्रमेण नवग्रैवेयक-नवानुदिशपञ्चानुत्तर विमानेषु मोक्षे चोत्पद्यन्ते ॥ ८४ ॥ ४१ सणी संहडणो वच्चइ मेघं तदों परं चावि । सेवादीरहिदो पण पण चदुरेगसंहडणो ॥ ८५॥ ५ संज्ञी जीवः षट्संहननः मेघां व्रजति, तृतीय पृथ्वीपर्यन्तमुत्पद्यत इत्यर्थः । ततः परं चापि सृपाटिकारहितः कीलितान्तः पञ्चसंहनन: अरिष्टान्तपञ्चपृथिवीषु उत्पद्यते । अर्धनाराचान्तचतुः पंहननः मवव्यन्तषट्पृथ्वीषु समुत्पद्यते । वज्रवृषभनाराचसहननो माघव्यन्तसप्तपृथ्वीषु उत्पद्यते ॥ ८५ ॥ अब उक्त संहननवाले जीव स्वर्ग में कहाँतक उत्पन्न हो सकते हैं यह बतलाते हैं सृपाटिका संहननवाले जीव यदि स्वर्ग में उत्पन्न हों तो आदि स्वर्ग-युगल ( सौधर्मऐशान) से लगाकर चौथे कल्पयुगल (लान्तव- कापिष्ठ) तक चार युगलों में अर्थात् आठवें स्वर्गतक उत्पन्न हो सकते हैं । पुनः दो-दो युगलों में कीलक और अर्धनाराच संहननवाले जीव जन्म धारण करते हैं अर्थात् पाँचवें छठे स्वर्ग युगल में कीलक संहननवाले और सातवें तथा आठवें स्वर्गयुगल में अर्धनाराच संहननवाले जन्म ले सकते हैं || ८३ || Jain Education International. नाराच आदि तीन संहननवाले वज्रनाराच आदि दो संहननवाले तथा वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले जीव क्रमशः नौ ग्रैवेयकों में नौ अनुदिशोंमें और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें उत्पन्न हो सकते हैं, अर्थात् आदिके तीन संहननवाले नौ ग्रैवेयकों तक, आदिके दो संहननवाले नौ अनुदिशों तक और प्रथम संहननवाले जीव पंच अनुत्तर विमानोंतक जन्म ले सकते हैं ||८४|| अब किस संहननवाले जीव किस नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं, यह बतलाते हैं छहों संहननवाले संज्ञी जीव यदि नरक में जन्म लेवें तो मेधा नामक तीसरे नरकतक जा सकते हैं । पाटिकासंहनन-रहित पाँच संहनन वाले अरिष्टा नामक पाँचवें नरकतक उत्पन्न हो सकते हैं। आदिके चार संहननवाले जीव पाँचवें मघवी नामक नरकतक और ववृषभनाराच संहननवाले सातवें माघवी नामक नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं ||५|| १. गो० क० २९ । २. तणवगेवेज्जाणुद्दिमपंचाणुत्तरविमाण ते जांति । ३. ज मे । ४. गो० क० ३० । ५. गो० क० ३१ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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