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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन तस्य दर्शनमोहनीय स्य त्रिप्रकारस्य दृष्टान्तमाह जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजंतेण । मिच्छादव्वं तु तिधा असंखगुणहीणदव्वकमा ॥५४॥ यन्त्रेण घरट्टेण कोद्रवो दलितो यथा तुष-तन्दुल-कणिकारूपेण त्रिधा भवति, तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वभावयन्त्रण मिथ्यात्वद्व्यं दलितं सत् मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्वप्रकृतिस्वरूपेणासडख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमण त्रिधा भवति ॥५४॥ पुनः द्विविध-[चारित्र-] मोहनीयस्वरूपं गाथाष्टकनाऽऽह दुविहं चरित्तमोहं कसायवेयणीय णोकसायमिदि । पढमं सोलवियप्पं विदियं णवभेयमुद्दिटुं ॥५५॥ चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् । तच्चारित्रं मोहयति मुह्यतेऽनेनेति वा चारित्रमोहनीयम् । तच्चारित्रमोहनीयं द्विविधम्-कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं चेति । तत्र प्रथमं कषायवेदनोयं षोडशप्रकारम् १६ । द्वितीयं नोकषायवेदनीयं नवभेदं नवप्रकारं ९ जिनरुदिष्टं कथितम् ॥५५॥ उत्पत्तिके कारणभूत अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंके निमित्तसे उस अनादिकालीन मिथ्यात्वके तीन टुकड़े हो जाते हैं। अतः उदय और सत्त्वकी अपेक्षा दर्शन मोहके उक्त तीन भेद जानना चाहिए। किन्तु बन्धकी अपेक्षा वह एक मिथ्यात्वरूपसे ही बँधता है। दर्शनमोहके तीन भेद होनेका दृष्टान्तपूर्वक वर्णन यन्त्र ( जाँता या चक्की) से दले हुए कोदोंके समान प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणामरूप यन्त्रसे मिथ्यात्वरूप कर्म द्रव्य तीन प्रकारका हो जाता है, और वह द्रव्य प्रमाणमें क्रमसे असंख्यात गुणित असंख्यात गुणित हीन होता है ॥५४॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार कोदोको चक्कीसे दलनेपर उसके तन्दुल ( चावल ), कण और भूसी ये तीनरूप हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूप परिणामोंके निमित्तसे अनादिकालोन एक मिथ्यात्व कर्मके तीन टुकड़े हो जाते हैं जिनके नाम क्रमशः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकति हैं। इनमें अनादिकालीन मिथ्यात्व द्रव्यके कर्म परमाणु क्रमशः असंख्यातगुणित रूपसे कम-कम होते हैं। इसीलिए पूर्व गाथामें यह कहा गया है कि दर्शनमोहनीय कर्म बन्धकी अपेक्षा एक मिथ्यात्वरूप है और उदय तथा सत्त्वकी अपेक्षा तीन भेद रूप है। चारित्र मोहकर्मके भेद मोहनीय कर्मका दूसरा भेद जो चारित्र मोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है-कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय । उनमें प्रथम कषाय वेदनीय सोलह और द्वितीय नोकषाय वेदनीय नौ प्रकारका कहा गया है ।।५५।। १. त मिन्छे दव्वं । २. ब तिहा। ३. गो० के० २६ । 1. ब स्वरूपमाह । 2. ब ईषत्कषाया नोकषायाः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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