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________________ कर्मप्रकृति तत्र त्रिप्रकारं दर्शनमोहनीयं दर्शयनाह-- बंधादेगं मिच्छं उदयं सत्तं पडुच्च तिविहं खु । दंसणमोहं मिच्छं मिस्सं सम्मत्तमिदि जाणे ॥५३॥ बन्धात् बन्धापेक्षया दर्शनमोहनीयं मिथ्यात्वरूपमेकं भवति । तदेव दर्शनमोहनीयं उदयं सत्त्वं च प्रतीत्य श्राश्रित्य त्रिविधं खु स्फुटं भवति-मिथ्यात्वं १ मिश्रं २ सम्यक्त्वं ३ चेति त्रिप्रकारं उदयसवापेक्षया जानीहि । तद्यथा-यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखो जीवादितत्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्ववत् समीषत् शुद्धरसं स्वशक्तियुतं तदुभयं मिश्रं च कथ्यते सम्यग्मिथ्यात्वमिति यावत् । यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदनकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामः तदुभयात्मको भवति । तदेव मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं भवति यदा शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं औदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेदयमानः सन् पुरुषः सम्यग्दृष्टिरभिधीयते, सा सम्यक्त्वप्रकृतिः ॥५३॥ दर्शनमोहनीय कर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्म बन्धकी अपेक्षा एक मिथ्यात्व रूप ही है किन्तु उदय और संत्वकी अपेक्षा तीन प्रकारका जानना चाहिए-१ मिथ्यात्व २ मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) और ३ सम्यक्त प्रकृति ॥५३॥ विशेषार्थ-जिस कर्मके उदयसे जीव सर्वज्ञ-प्रणीत मार्गसे प्रतिकूल उन्मार्गपर चलता है, सन्मार्गसे पराङ्मुख रहता है, जीव-अजीवादिक तत्वोंके ऊपर श्रद्धान नहीं करता है और अपने हित-अहितके विचार करने में असमर्थ रहता है उसे मिथ्यात्वकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवकी तत्त्वके साथ अतत्त्वकी, सन्मार्गके साथ उन्मार्गकी और हितके साथ अहितकी मिश्रित श्रद्धा होती है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे सम्यग्दर्शन तो बना रहे, किन्तु उसमें चल-मलिन आदि दोष उत्पन्न हों, उसे सम्यक्त्वप्रकृति कहते हैं। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है । और यदि कोई जीव लगातार ६६ सागर तक मनुष्य और देवयोनियोंमें आता-जाता रहे तो तबतक उसके सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय बना रह सकता है । सम्यग्मिथ्यात्वका उदय यतः केवल तीसरे गुणस्थानमें ही होता है, अतः उसका उदय एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता। मिथ्यात्वकर्मका उदय पहले ही गुणस्थानमें होता है अतः उसका उदय अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायेगा । जो भव्य अनादि मिथ्यादृष्टि हैं, उनके मिथ्यात्वका उदय यद्यपि अनादिकालसे आ रहा है, तथापि यतः एक-न-एक दिन उसका नियमसे अन्त होगा, अतः वह अनादिसान्त कहलाता है। किन्तु जो सादि मिथ्यादृष्टि भव्य हैं, अर्थात् एकादि बार जिनके सम्यक्त्व उत्पन्न हो चुका है, उसका मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है और इसलिए उसके उसका उदय कमसे-कम एक अन्तमुहूर्त और अधिकसे-अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक बना रह सकता है। अनादिकालसे सभी जीवोंके दर्शनमोहनीयकी केवल एक मिथ्यात्व प्रकृति ही बन्ध, उदय और सत्तामें रहती है। किन्तु प्रथम बार सम्यक्त्वकी १. त जाणि। 1. सन्दर्भोऽयं सर्वार्थसिद्धि८ सू०९ व्याख्यया शब्दशः समानः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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