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प्रकृतिसमुत्कीन
पलापयदणय वहेदि लाला चलति अंगाई । दिए गच्छंतो ठाइ पुणो वइसदि पदि ॥ ५० ॥
प्रचलाप्रचलोदयेन मुखात् लाला वहति, अङ्गानि चलन्ति ३ । निद्रोदयेन गच्छन् तिष्ठति, स्थितः पुनरुपविशति पतति च ४ ॥ ५० ॥
पलुदरण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेदि सुत्तो वि । ईस ईसं जाणदि मुहुं मुहुं सोवदे मंदं ॥ ५१ ॥
प्रचलोदयेन जीवः ईषदुन्मील्य स्वपिति, सुप्तोऽपि ईषदीषजानाति, मुहुर्मुहुः मन्दं स्वपिति ५ ॥
द्विविधं वेदनीयं द्विविधं मोहनीयं चाह --
दुविहं खु वेयणीयं सादमसादं च वेयणीयमिदि ।
दुविप्पं मोहं दंसण चारित्तमोहमिदि ||५२ ||
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स्फुटं वेदनीयं द्विविधम्-- सातावेदनीयं असातावेदनीयं चेति । तत्र यद् रतिमोहनीयोदय बलेन जीवस्य सुखकारणेन्द्रियविषयानुभवनं कारयति तत् सातावेदनीयम् १ | यद् दुःखकारणेन्द्रियविषयानुभवनं कारयति रतिमोहनीयोदयबलेन तदसातावेदनीयम् २ । पुनः मोहनीयं द्विविकल्पं द्विप्रकारम् - - दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिधा -- मिथ्यात्व : सम्यग्मिथ्यात्व २ सम्यक्त्व प्रकृति३ भेदात् । चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिविधम्-- कषायनोकषायभेदात् ॥ ५२ ॥
प्रचलाप्रचला और निद्राका स्वरूप
प्रचलाप्रचला कर्मके उदयसे मुखसे लार बहती है और अंग-उपांग चलते रहते हैं । निद्राकर्मके उदयसे जीव गमन करता हुआ भी खड़ा हो जाता है, बैठ जाता है, गिर पड़ता है इत्यादि नाना क्रियाएँ करता है ||५०||
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प्रचलाका स्वरूप
प्रचला कर्मके उदयसे यह जीव कुछ-कुछ आँखों को उघाड़कर सोता है और सोता हुआ थोड़ा-थोड़ा जानता है और जागते हुए बार-बार मन्द मन्द नींद लेता रहता है ||२१|| ग्रन्थकार आधी गाथाके द्वारा वेदनीयकर्मके भेदोका प्रतिपादन करते हैंवेदनीय कर्म के दो भेद हैं, १ - सातावेदनीय २- असातावेदनीय |
मोहनीय कर्मके भेदोंका निरूपण करते हैं
मोहनीय कर्म दो प्रकारका है १- दर्शन मोहनीय २ चारित्र मोहनीय । जो आत्माके सम्यग्यदर्शन गुणका घांत करे उसे दर्शन मोहनीय कहते हैं और सम्यक् चारित्र गुणका घात करनेवाले कर्मको चारित्र मोहनीय कहते हैं ॥ ५२ ॥
१. गो० क० २४ । २. गो० क० २५ ।
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