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कमप्रकृति
मिरं प्रकाशकमेवम्भूतं इदं केवलज्ञानं मन्तव्यं ज्ञातव्यम् । केवलज्ञानमावृणोत्यात्रियतेऽनेनेति वा केवलज्ञानावरणीयम् ॥४१॥ , ज्ञानावरणस्य पञ्चप्रकृतिनामान्याह
मदि-सुद-ओही-मणपजव-केवलणाण-आवरणमेवं ।
पंचवियप्पं णाणावरणीयं जाण 'जिणभणियं ॥४२॥ मतिज्ञानावरणं १ श्रुतज्ञानाबरणं २ अवधिज्ञानावरणं ३ मनःपर्ययज्ञानावरणं ४ केवलज्ञानावरणं ५ एवममुना प्रकारेण पञ्चविकल्पं पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणीयं जिनैणितं हे शिष्य ! त्वं ॥ अथ दर्शनस्वरूपमाह
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं ।
अविसेसिदण अढे दंसणमिदि भण्णए समये ॥४३॥ भावानां पदार्थानां सामान्य विशेषात्मकबाह्य वस्तूनां आकारं भेदग्रहणं अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं स्वरूपमात्रावभासनं तदर्शनमिति परमागमे मण्यते । वस्तुस्वरूपमा ग्रहणं कथम् ? अर्थान् बाह्य-. पदार्थान अविशेष्य जातिक्रियागुणप्रकारैरविकल्प्य स्वरूपसत्तावभासनं 4दर्शनमित्यर्थः। दर्शनमावृणोत्याब्रियतेऽनेनेति या दर्शनावरणीयम् ॥४३॥ चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वरस्वरूपमाह
चक्खूण जं पयासइ दीसई तं चक्खुदंसणं विति ।
सेसिंदियप्पयासो णायबो सो अचक्खु ति ॥४४॥ क्षयके साथ उत्पन्न होता है अतएव अप्रतिहत शक्तियुक्त होनेसे उसे समग्र कहते हैं। इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि बाहरी पदार्थोंकी सहायता न रखनेसे इसे केवल या असहाय कहते हैं । समस्त पदार्थों के जानने में उसका कोई बाधक नहीं है अतएव उसे असपत्न या प्रतिपक्षरहित कहते हैं । कोई भी ज्ञेय पदार्थ इस ज्ञानके विषयसे बाहर नहीं है। ,
उपर्युक्त मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके आवरण करनेसे ज्ञानावरणीय कर्म पाँच विकल्परूप जिनभगवान्ने कहा है ऐसा हे शिष्य, तू जान ॥४२॥
अब ग्रन्थकार दर्शनका स्वरूप कहते हैं--
पदार्थोके आकाररूप-विशेष अंशका ग्रहण न करके जो केवल सामान्य अंशका निर्विकल्परूपसे ग्रहण होता है उसे परमागममें दर्शन कहते हैं ॥४३॥
विशेषार्थ--प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेषरूप दो धर्म रहते हैं उनमें से केवल सामान्य धर्मकी अपेक्षा जो स्व-पर पदार्थोंकी सत्ताका प्रतिभास होता है उसे दर्शन कहते हैं । इसका विषय वचनोंके अगोचर है इसलिए इसे निर्विकल्प कहा गया है। परमागममें इसके चार भेद कहे गये हैं-१ चक्षुदर्शन २ अचक्षुदर्शन ३ अवधिदर्शन और ४ केवलदर्शन ।
अब ग्रन्थकार क्रमशः उनका स्वरूप कहते हुए पहले चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनका स्वरूप निरूपण करते है
१. त जाणिदं बोह। २. पञ्चसं० १, १३८ । गो० जी० ४८१ । ३. त दिस्सइ । ४. पञ्चसं० १, १३९ । गो. जी. ४८३ ।
- 1. ब सदृशपरिणामः सामान्यं विसदृशपरिणामो विशेषः । 2. ब पदार्थानाम् । 3. ब स्वपरसत्ता। 4.ब पश्यति दृश्यतेऽनेन दर्शनमात्रं वा दर्शनम् । 5.ब पाठोऽयं नास्ति ।
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