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प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन
ज्ञानं भवति । तिरश्वां पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तानां नाभेरुपरि शङ्ख-पद्म-स्वस्तिकादिशुभचिह्न प्रदेशस्थावधिज्ञानं
भवति ।
अवधिज्ञानमावृणोत्याब्रियतेऽनेनेति वा अवधिज्ञानावरणीयम् ॥३६॥
अथ मन:पर्ययज्ञानस्वरूपमाह
चिंतियमचितियं वा अद्धं चिंतियमणेयमेयगयं । Marriages जं जाणइ तं खु णरलोए' ॥४०॥
चिया विषयीकृतम् अचिन्तितं चिन्तयिष्यमाणम्, अर्धचिन्तितं असम्पूर्ण चिन्तितं वा इत्यनेकभेदगतम परमैन सि स्थितं यज्ज्ञानं जानाति तत् खु स्फुटं मन:पर्ययज्ञानमित्युच्यते । तस्योत्पत्तिप्रवृत्ती नरलोके मनुष्यक्षेत्रे एव न तु तद्बहिः तन्मन:पर्ययज्ञानं द्विविधम् — ऋजुमतिविपुलमतिभेदात् । मन:पर्ययज्ञानमावृणोत्याब्रियतेऽनेनेति वा मन:पर्ययज्ञानावरणीयम् ॥ ४० ॥
केवलज्ञानस्वरूपमाह -
तुम केवलमसवत्त सव्वभावगयं ।
लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वं ॥४१॥
जीवद्रव्यस्य शक्तिगत सर्वज्ञानाविभागप्रतिच्छेदानां व्यक्तिगतत्वात्सम्पूर्णम् । मोहनीय-वीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयात् अप्रतिहतशक्तियुक्तत्वाच्च समग्रम् । द्वितीय सहायनिरपेक्षत्वात्केवलम् । घातिचतुष्टयप्रक्षयादसपत्त्रम् । क्रमकरणव्यवधान रहितत्वेन सकल पदार्थगतत्वात्सर्वभावगतम् । लोकालोकयोर्विगतति
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सीमित जानने की अपेक्षा परमागम में इसे सीमाज्ञान कहा गया है । जिनेन्द्रदेवने इसके दो भेद कहे हैं। एक भव-प्रत्यय-अवधि और दूसरा गुण-प्रत्यय-अवधि ||३६||
विशेषार्थ - - नारक और देवभवकी अपेक्षासे अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होकर जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसे भव- प्रत्यय - अवधि कहते हैं । यह देव, नारकी और तीर्थकरों के होता है । जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी अपेक्षा से अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होकर उत्पन्न होता है उसे गुण- प्रत्यय - अवधि कहते हैं । यह मनुष्य और तिर्यंचोंके होता है |
मन:पर्ययज्ञानका स्वरूप
जो चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित आदि अनेक भेदरूपसे दूसरेके मन में स्थित पदार्थको जाने उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान तपस्वी मनुष्योंके मनुष्यलोक में ही होता है, बाहर नहीं ॥ ४० ॥
केवलज्ञानका स्वरूप
जो ज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल (असहाय ), असपत्न ( प्रतिपक्ष रहित), सर्वपदार्थगत और लोक - अलोक में अन्धकाररहित होता है उसे केवलज्ञान कहते हैं ॥ ४१ ॥
विशेषार्थ - त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त चराचर वस्तुओंके युगपत् जाननेवाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । यह सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है और समस्त पदार्थोंका जाननेवाला है इसलिए यह सम्पूर्ण है । मोहनीय और अन्तराय कर्म
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१. पञ्चसं० १, १२५ । गो० जी० ४३७ । २. पञ्चसं० १, १२६ । गो० जी० ४५९ । 1. ब इन्द्रिय ।
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