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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन २५ चक्षुषोः नयनयोः सम्बन्धि यद्पादि वस्तुसामान्यग्रहणं प्रकाशते पश्यति वा तत् नेत्रसम्बन्धिवस्तु दृश्यते जीवेन अनेनेति कृत्वा चक्षुर्विषयप्रकाशनमेव 1तच्चक्षुदर्शन मिति जिना ब्रुवन्ति कथयन्ति । शेषेन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्राणां सम्बन्धिवस्तुनो योऽसौ प्रकाशः दर्शनं स ज्ञातव्योऽवक्षुदर्शन मिति । चक्षुर्दर्शनमावृणोत्यावियतेऽनेनेति वा चादर्शनावरणीयम् । अवक्षुदर्शनमावृणोत्यावियतेऽनेनेति वा प्रचक्षुदर्शनावरणीयम् २॥४४॥ अथावधिदर्शनस्वरूपमाह परमाणुआदिआई' अंतिमखंधं ति मुत्तिदव्वाई । तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताई पच्चक्खं ॥४॥ परमाणोरारभ्य महास्कन्धपर्यन्तं मूर्तिद्रव्याणि, तानि यदर्शनं प्रत्यक्षं पश्यति; तत्पुनः अवधिदर्शनं भवति । अवधिदर्शनमावृणोत्यात्रियतेऽनेनेति वा अवधिदर्शनावरणीयम् ॥४५॥ केवलदर्शनस्वरूपमाह बहुविह-बहुप्पयारा उजोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । लोयालोयवितिमिरो जो केवलदंसणुजोवों ॥४६॥ बहुविधाः तीव्रमन्दमध्यमादिभेदेनानेकविधाः बहुप्रकाराश्चोद्योताः चन्द्रसूर्यरत्नादिभेदेनानेकप्रकारा गोताकाशविशेषाः लोके परिमितक्षेत्रे एव प्रकाशन्ते । यः केवलदर्शनाख्य उद्योतः स लोकालोकयो: सर्वसामान्याकारे वितिमिरः करणक्रमव्यवधानरहितत्वेन सदाऽवभासमानः स केवलदर्शनाख्य उद्योती भवति । केवलदर्शनमावृणोत्यावियतेऽनेनेति वा केवलदर्शनावरणीयम् ॥४६॥ __चक्षुः इन्द्रियके द्वारा जो पदार्थका सामान्य प्रकाश होता है या वस्तुका सामान्य रूप दिखाई देता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं । चक्षुरिन्द्रियके सिवाय शेष इन्द्रियों और मनके द्वारा होनेवाले अपने-अपने विषयभूत सामान्य प्रकाश या प्रतिभासको अचक्षुदर्शन जानना चाहिए ॥४४॥ अवधिदर्शनका स्वरूप___ अवधिज्ञान होनेके पूर्व उसके विषयभूत परमाणुसे लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्यको जो सामान्य रूपसे देखता है उसे अवधिदर्शन कहते हैं । इस अवधिदर्शनके अनन्तर अवधिज्ञान उत्पन्न होता है जो अपने विषयभूत परमाणु आदिको स्पष्ट रूपसे प्रत्यक्ष जानता है ।।४५) केवलदर्शनका स्वरूप तीव्र, मन्द, मध्यम आदि अनेक अवस्थाओंकी अपेक्षा तथा चन्द्र-सूर्य आदि पदार्थोकी अपेक्षा अनेक प्रकार के प्रकाश लोकके परिमित क्षेत्रमें ही रहते हैं, किन्तु जो केवल दर्शनरूप उद्योत (प्रकाश) है वह लोक और अलोकको अन्धकाररहित स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करता है ।।४६।। १. ब -'दव्वं' इति पाठः । २. पञ्चसं. १, १४० । गो. जो०४८४ । ३. पवसं० १,१४१ । मो० जी० ४८५ । 1. ब यच्चक्षुषा दृश्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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