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प्रकृतिसमुत्कीर्तन सो बंधो चउभेओ णायव्यो होदि सुत्तणिहिट्ठो ।
पयडि-द्विदि-अणुभाग-पएसबंधो पुरा कहियो' ॥२६॥ स पूर्वोक्तकर्मबन्धश्चतुर्भे दो ज्ञातव्यो भवति । स कथम्भूतः ? जिनागमे कथितः । ते चत्वारो भेदाः के ? प्रकृति स्थित्यनुभागप्रदेशाः । बन्धस्य अयं भेदः पुरा पूर्वोकगाथासु कथितः । उक्तं हि
प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालावधारणम् ।
अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशः प्रवयात्मकः1 ॥ ४ ॥ पूर्वोक्तज्ञानावरणादिकर्मणां क्रमेण दृष्टान्तमाह- .
पड-पडिहारसिमजा-हडि-चित्त-कुलाल भंडयारीणं ।
जह एदेसिं भावा तहविह कम्मा मुणेयव्वा ॥२७॥ देवतामुखवस्त्र १ राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतिहार २ मधुलिप्तासिधारा ३ मद्य ४ हडि" ५ चित्रक ६ कुलाल ७ भाण्डागारिकाणां ८ एतेषां भावा यथा तथैव यथासङख्यं ज्ञानावरणादिकर्माणि ज्ञातव्यानि ॥२७॥
अब ग्रन्थकार बन्धके भेदोंका निरूपण करते हैं
जीवके एक समयमें जो कर्मबन्ध होता है, वह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धके रूपसे आगमसूत्र में चार प्रकारका पुरातन आचार्यों-द्वारा निर्देश किया गया है, ऐसा जानना चाहिए ॥२६॥
...विशेषार्थ-प्रतिसमय बँधनेवाले कर्म परमाणुओंके भीतर ज्ञान दर्शन आदि आत्मगुणोंको आवरणादि करनेका जो स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । वे बँधे हुए कर्म-परमाणु जितने समय तक आत्माके साथ रहेंगे, उस काल की मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्म-परमाणुओंमें जो सुख-दुःखादिरूप फल देने की शक्ति होती है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं और आनेवाले कर्म-परमाणुओंका जो पृथक्-पृथक् कर्मों में विभाजन होकर आत्माके साथ सम्बन्ध होता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं।
__ अब दृष्टान्तपूर्वक आठों कर्मोंके स्वभावका निरूपण करते हैं___पट (वस्त्र), प्रतीहार ( द्वारपाल ), मधु-लिप्त असि, मद्य ( मदिरा), हलि (पैरको फाँसकर रखनेवाला काठका यन्त्र-खोड़ा), चित्रकार, कुलाल ( कुम्भकार ) और भण्डारीके जैसे अपने-अपने कार्य करनेके भाव होते हैं उसी प्रकार क्रमसे आठों कर्मों के कार्य जानना चाहिए ।।२७॥
विशेषार्थ-ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको ज्ञानावरण कहते हैं । इसका स्वभाव देव-मत्तिके मुखपर ढके हुए वस्त्र के समान है। जिस प्रकार देवमूर्तिके मुखपर ढका हुआ वस्त्र देवतासम्बन्धी विशेष ज्ञान नहीं होने देता उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञानको रोकता है, उसे प्रकट नहीं होने देता। आत्माके दर्शनगुणको आवरण करनेवाले कर्मको दर्शनावरण कहते हैं। इसका स्वभाव द्वारपालके समान कहा है। जैसे द्वारपाल आगन्तुक व्यक्तिको राजद्वारपर ही रोक देता है, भीतर जाकर राजाके दर्शन नहीं करने देता, उसी प्रकार यह कर्म भी
१. भावसं० ३२९ । २. गो० क० २१ । 1. सं० पञ्चसं० ४,३६६। ब प्रतौ नास्त्ययं श्लोकः । 2. बा हलि ।
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