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________________ १५ कर्मप्रकृति अथाष्टकर्मणां ज्ञानावरण|दीनामुत्तरप्रकृतिसङ्ख्यार्थं तेषां च स्वभावनिर्दर्शनार्थं गाथाष्टकमाह-णाणावर कम्मं पंचविहं होइ सुत्तणिट्ठि ं । जह पडिमोवरि खित्तं कप्पडयं छादयं होई ||२८|| ज्ञानावरणं कर्म पञ्चविधं सूत्रनिर्दिष्टं जिनागमे कथितं भवति । तत्स्वभावदृष्टान्तमाह — यथा प्रतिमोपरि क्षिप्तं कर्पटकं छादकं भवति, तथा ज्ञानावरणं कर्म जीवगुणज्ञानाच्छादकं भवति ॥ २८॥ दंसण-आवरणं पुण जह पडिहारो हु णिवदुवारम्हि | तं वहिं पत्तं फुडत्वा हि सुतहि ||२६|| पुनः दर्शनावरणं कर्म किं स्वभावम् ? यथा नृपद्वारे प्रतिहारः राजदर्शननिषेधको भवति, तथा दर्शनावरण कर्म वस्तुदर्शन निषेधकं भवति । तद्दर्शनावरणं कर्म नवप्रकारं स्फुटार्थवाग्भिर्गणधर देवादिभि: 1 सूत्रे सिद्धान्ते प्रोक्तम् ॥ २९ ॥ आत्मा के दर्शनगुणको प्रकट नहीं होने देता। जो सुख - दुःखका वेदन या अनुभव करावे, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । इसका स्वभाव शहद लपेटी तलवारकी धारके समान है जिसे चखनेसे पहले कुछ सुख होता है परन्तु पीछे जीभके कट जानेपर अत्यन्त दुःख होता है । इसी प्रकार साता और असाता वेदनीय कर्म जीवको सुख और दुःखका अनुभव कराते हैं । जो जीवको मोहित या अचेत करे उसे मोहनीय कर्म कहते हैं इसका स्वभाव मदिरा के समान है । जैसे मदिरा जीवको अचेत कर देती है उसी प्रकार मोहनीय कर्म भी आत्माको मोहित कर देता है उसे अपने स्वरूपका कुछ भी मान नहीं रहता । जो जीवको किसी एक पर्याय-विशेष में रोक रखता है उसे आयुकर्म कहते हैं । इसका स्वभाव लोहेकी साँकल या काठके खोड़े के समान है । जिस प्रकार साँकल या काठका खोड़ा मनुष्यको एक ही स्थानपर रोक रखता है, दूसरे स्थान - पर नहीं जाने देता; उसी प्रकार आयुकर्म भी जीवको मनुष्य पशु आदिकी पर्याय में रोक रखता है । जो शरीर और उसके अंग- उपांग आदिकी रचना करे उसे नामकर्म कहते हैं । इसका स्वभाव चित्रकार के समान है । जैसे चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है उसी प्रकार नामकर्म भी जीवके मनुष्य-पशु आदि अनेक रूपोंका निर्माण करता है। जो जीवको ऊँचा नीच कुलमें उत्पन्न करे उसे गोत्र कर्म कहते हैं । इसका स्वभाव कुम्भकार के समान है । जैसे कुम्भकार मिट्टी के छोटे-बड़े नाना प्रकार के बरतन बनाता है उसी प्रकार गोत्रकर्म भी जीवको ऊँच या नीच कुल में उत्पन्न करता है । जो जीवको मनोवांछित वस्तुकी प्राप्ति न होने दे, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं । इसका स्वभाव राजभण्डारीके समान है । जैसे भण्डारी दूसरेको इच्छित द्रव्य प्राप्त करनेमें विघ्न करता है उसी प्रकार अन्तराय कर्म भी जीवको इच्छित वस्तुकी प्राप्ति नहीं होने देता । ज्ञानावरण कर्म आगमसूत्र में पाँच प्रकारका कहा गया है। जिस प्रकार प्रतिमा के ऊपर पड़ा हुआ कपड़ा प्रतिमाका आच्छादक होता है उसी प्रकार यह कर्म आत्माके ज्ञानगुणका आच्छादन करता है ||२८|| Jain Education International जिस प्रकार राजद्वार पर बैठा हुआ प्रतिहार ( द्वारपाल ) किसीको राजा के दर्शन नहीं करने देता उसी प्रकार दर्शनावरणकर्म आत्मा के दर्शन नहीं करने देता । यह कर्म स्पष्टवादी आचार्योंने परमागमसूत्र में नौ प्रकारका कहा है ||२९|| १. भावसं ० ३३१ । २. ब फुडत्थवागियहं । ३. भावसं० ३३२ । 1. ब जिनैः । 2. ब कथितम् । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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