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________________ १३ प्रकृतिसमुत्कोत्तन विवक्षितप्रकारेण स्वव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत् स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्त्यवक्तव्यमित्यर्थः५। स्यान्नास्त्यवक्तव्यम्-स्यात् कथञ्चित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत् स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यं नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ६ । स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यम् -स्यात् कथञ्चित विवक्षितप्रकारंण क्रमेण स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत् स्वारद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्तिनास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः । x एकमपि द्रव्यं कथं सप्तमङ्गात्मकं भवतीति प्रश्ने परिहारमाह-यथैकोऽपि देवदत्तो गौण-मुख्यविवक्षावशेन बहुप्रकारो भवति । कथमिति चेत् पुत्रापेक्षया पिता भण्यते, सोऽपि स्वकीयपित्रपेक्षया पुत्रो भण्यते, मातुलापेक्षया भागिनेयो भण्यते, स एव भागिनेयापेक्षया मातुलो भण्यते, भार्यापेक्षया भर्ता भण्यते, भगिन्यपेक्षया भ्राता भण्यते, विपक्षापेक्षया शर्मण्यते, इष्टापेक्षया मित्रं मण्यते इत्यादि । तथैकमपि द्रव्यं गौणमुखविवक्षावशेन सप्तभङ्गात्मकं भवतीति नास्ति दोष इति1 x ॥१६॥ अथ तदावरणानां पाटक्रमं प्रीतिपूर्वकमाह--- अब्भरिहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो दु सणं होदि । सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे ॥१७॥ अभ्यहितात् पूज्यात् पूर्व ज्ञानं भणितम् , '2 यच्चाञ्चितं द्वयोः, इति सूत्रसद्भावात् । ततो हि दर्शनं भवति । अतः सम्यक्त्वं भवति । वीर्य तु जीवाजीवेषु प्राप्तमिति हेतोः चरिम अन्त पठितम् ॥१७॥ साथ कहना असंभव है । इस प्रकार ये चार भंग सिद्ध हो जाते हैं। पुनः वक्ता जब वस्तुके अस्तिरूपके साथ अवक्तव्यरूप धर्मके कहनेकी विवक्षा करता है, तब स्यात्-अवक्तव्यरूप पाँचवाँ भंग बन जाता है । जब वस्तुके नास्तिरूपके साथ अवक्तव्यरूप धर्मके कहनेकी विवक्षा करता है, तब स्यात् नास्ति-अवक्तव्यरूप छठा भंग बन जाता है और जब अस्ति और नास्तिरूप दोनों धर्मोंके क्रमशः कथन करनेके साथ युगपत् कथनकी विवक्षा करता है, तब स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यरूप सातवाँ भंग बनता है । गाथाकारने प्रारंभके चार भंगोंका स्पष्टरूपसे नाम-निर्देश करके शेष तीन भंगोंके जाननेकी सूचना 'पुणोवि तत्तिदयं' इस पदके द्वारा कर दी है। ये सात भंग जैन दर्शनके मूल या प्राण हैं, इसलिए प्रत्येक पदार्थका स्वरूप-वर्णन इसी सप्त भंगरूप वाणीके द्वारा किया जाता है, यही संकेत ग्रन्थकारने प्रस्तुत गाथाके द्वारा किया है। ___ ग्रन्थकारने 'अत्थं देक्खिय जाणदि' इस गाथामें जिस क्रमसे जीवके गुणोंका निर्देश किया है, तदनुसार पहले दर्शनावरणका और पीछे ज्ञानावरण कर्मका निर्देश करना चाहिए था, परन्तु वैसा न करके पहले ज्ञानावरणकर्मका जो निर्देश आगम परम्परामें पाया जाता है, सो क्यों ? इस शंकाका समाधान ग्रन्थकार युक्तिपूर्वक करते हैं-- ___जीवके सर्व गुणों में ज्ञानगुण प्रधान है, इसलिए, उसके आवरण करनेवाले कर्मका सबसे पहले नाम-निर्देश किया गया है। उसके पश्चात् दर्शन और सम्यक्त्वगुणके आवरण करने या घातनेवाले कर्मोंका निर्देश किया गया है। वीर्यगुण शक्तिरूप है और यह शक्तिरूप गुण जीव और अजीव दोनोंमें पाया जाता है, इसलिए उसके घात करनेवाले अन्तराय कर्मका सब कर्मों के अन्त में निर्देश किया गया है ।।१७।। १. गो० क० १६। 1. सन्दर्भोऽयं पञ्चास्तिकायजयसेनीयतात्पर्यवृत्या सह शब्दशः समानः । xब प्रतौ चिह्नान्तर्गतपाठो नास्ति । 2.ब यच्चावितं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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