________________
कर्मप्रकृति घादीवि अघादि वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो।
णामतियणिमित्तादो विग्धं पठिदं अघादिचरिमम्हि ॥१८॥ अन्तरायकर्म घात्यपि अघातिवद् ज्ञातव्यम् । कुतः ? निःशेषजीवगुण वातने अशक्यत्वात्, नामगोत्रवेदनीयनिमित्तत्वाच्च । नामगोत्र वेदनीयान्येव निमित्तं कारणं यस्यान्तरायस्य तत्तथं तम् । तस्मादधातिनां चरमे प्रान्ते पठितं पतितं वा। आयुर्नामगोत्रसंज्ञाघातिनां प्रान्ते कथितम् । अथवा घातिनां चरम पठितम् ॥१८॥
आउबलेण अवढिदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु ।
भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्वं तु ॥१६॥ तु पुनः आयुर्बलाधानेना वस्थितिः । कस्य ? नामकर्मकार्यगतिलक्षणभवस्य । इति हेतोः नामकर्म आयुःकर्मपूर्वकं भवति । आयु कर्म पूर्वमस्येति नामकर्मणः । तत्तु पुन: गतिलक्षणभवमाश्रित्य नीचस्वमुच्चत्वं चेति हेतोः गोत्रकर्म नामकर्मपूर्वकं कथितम् । नामकर्म पूर्व यस्य गोत्रस्य तत् ॥१९।।
घादिं व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं ।
इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्हि पठिदं तु ॥२०॥ वेदनीयं कर्म घातिकर्मवत् मोहनीयविशेषरत्यरत्युदय बलेनैव जीवं घातयति, सुखदुःखरूपसातासातनिमित्तेन्द्रियविषयानुभवनेन हन्तीति हेतोः घातिकर्मणां मध्ये मोहनीयस्यादौ वेदनीयं पठितम् ।।२०।।
यहाँपर पुनः शंका उत्पन्न होती है कि अन्तराय तो घातियाकर्म है उसका अघा. तिया कर्मोंके अन्तमें क्यों नाम-निर्देश किया गया है ? ग्रन्थकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं
यद्यपि अन्तराय घातिया कर्म है, तथापि अघातिया कर्मों के समान वह जीवके वीर्यगणको सम्पूर्णरूपसे घात करने में समर्थ नहीं; तथा नाम. गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मों के निमित्तसे ही वह अपना कार्य करता है, इसलिए उसे अघातिया कर्मोके अन्त में कहा गया है ॥१८॥
अब ग्रन्थकार शेष कौके क्रमकी सार्थकता बतलाते हैं__ आयुकर्मके बलसे जीवका विवक्षित भव या चतुर्गतिरूप संसारमें अवस्थान होता है, इसलिए आयुकर्मके निर्देशके पश्चात् नामकर्मका निर्देश किया गया है । तथा शरीररूप भवका आश्रय लेकर ही नीच और ऊँचपनेका व्यवहार होता है, इसलिए नामकर्मके पश्चात् गोत्र. कर्मका निर्देश किया गया है ॥१९॥
यहाँ पर शंका उत्पन्न होती है कि वेदनीय कर्म तो अघातिया है, फिर उसका पाठ घातिया कर्मोके बीचमें क्यों किया गया है ? इसका ग्रन्थकार समाधान करते हैं
यद्यपि वेदनीयकर्म अघातिया है, तथापि वह मोहनीयकर्म के बलसे घातिया कर्मो के समान ही जीवका घात करता है, इसलिए घातिया कर्मों के मध्य में और मोहनीय कर्मके आदिमें उसका नाम-निर्देश किया गया है ॥२०॥
१. ब पडिदं । २. गो० क०१७। ३. ब पडिदं । ४. गो० क०१८ । ५. गो० क० १९ । 1.ब बलाधारण।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org