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________________ कर्मप्रकृति करोति । क इव? हलिरिव । छिद्वितकाष्ठविशेषो हडिः । यथा हडिः नरस्यावस्थितिं करोति, तथा आयुष्कर्म जीवस्य संसारे स्थितिकारकं भवतीत्यर्थः ॥११॥ नामकर्मकार्यमाह गदि आदि जीवभेदं देहादी पोग्गलाण भेयं च । गदि-अंतरपरिणमणं करेदि णामं अणेयविहं ॥१२॥ गत्याद्यनेकविधं1 नामकर्म कर्तृभूतं सत् नारकादिजीवपर्यायभेदं औदारिकादिशरीरपुद्गलभेदं गत्यन्तरपरिणमनं च करोति, तेन कारणेन तन्नामकर्म जीव-पुद्गल-क्षेत्रविपाकि भवति । चशब्दाद् भवविपाकि च भवति । तत्कथमित्याह-ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दर्शनावरणनवकं १ मोहनीयाष्टाविंशतिकं २८ अन्तरायपञ्चकं ५ वेदनीयद्वयं २ गोत्रद्विकं २ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयं २ नरकादिगतिचतुष्कं ४ एकेन्द्रियादिजाति पञ्चकं ५ उच्छवासं १ तीर्थकरत्वं स्थावरबसे २ यशोऽयशसी २ बादरसूक्ष्मे २ पर्याप्तापर्याप्ते २ सुस्वरदुःस्वरे २ श्रादेयानादेये २ सुभगदुर्भगे २ एवमेकीकृताः अष्टसप्ततिः ७८ प्रकतयो जीवविपाकिन्यो भवन्ति । औदारिकादिशरीर ५ बन्धन ५ संघात ५ संस्थान ६ अङ्गोपाङ्ग ३ संहनन ६ रस ५ गन्ध २ वर्ण ५ स्पर्श ८ अगुरुलघु १ उपघात १ परघात १ आतप १ उद्योत १ निर्माण १ प्रत्येकसाधारण २ स्थिरास्थिर २ शुभाशुभ २ एवं समुच्चयीकृताः द्वाषष्टिः प्रकृतयः ६२ पुद्गलविपाकिन्यो भवन्ति । नरकतियङ्मनुष्यदेवगत्यानुपूज्यश्चतस्रः ४ क्षत्रांवपाकिन्यो भवन्ति । नरकांतयङ्मनुष्यदेवायुष्कं च ४ भवविपाकिन्यो भवन्ति ॥१२॥ भावार्थ-जैसे किसी मनुष्यके पाँवको यदि किसी मोटी लकड़ीके छेद में डालकर उसमें कील ठोक दी जाय, तो वह मनुष्य उस स्थानसे इधर-उधर नहीं जा सकता है, उसी प्रकार आयुकर्म भी इस चतुर्गतिरूप संसार में जीवको रोक रखता है, उसे अपने अभीष्ट स्थानपर नहीं जाने देता। गाथाके पूर्वार्ध द्वारा ग्रन्थकारने यह भाव प्रकट किया है कि यद्यपि संसारकी वृद्धि तो मिथ्यात्व आदिके कारण होती हैं पर संसार में जीवका अवस्थान आयुकर्मके कारण होता है। अब नामकर्मका कार्य बतलाते हैं नामकर्म अनेक प्रकारका है । वह गति, जाति आदि जीवोंके भेदोंको, शरीर, अङ्गोपाङ्ग आदि पुद्गलोंके भेदोंको, तथा जीवके एक गतिसे दूसरी गतिरूप परिणमनको करता है ।।१२।। . विशेषार्थ-नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ तिरानवै हैं, उनमें कितनी ही प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं, कितनी ही पुद्गलविपाकी हैं और कितनो ही क्षेत्रविपाकी हैं, सो इन सबका वर्णन स्वयं ग्रन्थकार आगे करेंगे। यहाँ इतना जान लेना चाहिए कि जिन गति, जाति आदि प्रकृतियोंका फल जीवमें होता है, उन्हें जीव विपाकी कहते हैं। जिनकी फल शरीर, संस्थान आदिके रूपसे पुद्गलमें होता है उन्हें पुद्गलविपाकी कहते हैं और जिनका फल विग्रहगतिरूप क्षेत्र-विशेषमें ही होता है ऐसी प्रकृतियोंको क्षेत्रविपाकी कहते हैं। जिन प्रकृतियोंका फल नारक आदि भव-विशेषमें ही होता है, उन्हें भवविपाकी कहते हैं। सो यथार्थतः आयुकर्मकी चारों प्रकृतियोंको ही भवविपाकी माना है, परन्तु यतः गतिनामा नामकर्म आयुकर्मका अविनाभावी है, अतः उपचारसे उसे भी भवविपाकी कहा जा सकता है, ऐसी सूचना गाथा-पठित 'च' शब्दसे मिलती है, ऐसा टीकाकार सूचित करते हैं। १. गो० क० १२ । 1. ब प्रकारं । 2. असतं तत् । 3. ब एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजातिपंचकं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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