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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन तथा न नैव, जीवगुणवातकप्रकारेण अप्रवृत्तत्वात् अघातिसंज्ञानि भवन्ति श्रीगोम्मटसारे ( ? ) सर्वघातिदेशवातिप्रकृतिसंज्ञा कथ्यते-"केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोहबारसयं । ता सम्बधाइसण्णा मिच्छत्तमेयवीसदिमं ॥१॥" केवलज्ञानावरणं । निद्रा १ निद्रानिद्रा २ प्रचला ३ प्रचलाप्रचला ४ स्त्यानगृद्धिः ५ केवलदर्शनावरणं ६ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानचतुष्कं मोहद्वादशकं १२ मिश्रसम्यक्त्वं १ मिथ्यात्वं १ एवं २१ प्रकृतयः सर्ववातिसंज्ञाः भवन्ति । देशघातिप्रकृतयः २६ । “णाणावरण चउक्कं दसणतिगमंतराइगं पंच । ता होंति देसघादी सम्म संजलण णोकसाया य ॥२॥" मत्याद्यावरणचतुष्कं ४ चक्षुरादित्रिकं ३ दानादिपञ्चकं ५ सम्यक्त्वप्रकृतिः १ संज्वलनचतुष्कं ४ नव नोकषाया है एवं २६ देशघातिप्रकृतयः। अन्या: प्रकृतयः १०१ अघातिसंज्ञिकाः । सर्वघातयः २१ देशबातयः २६ भवातिप्रकृतयः १०१ एवं सर्वाः १४८ प्रकृतयः ॥६॥ तान् जीवगुणानाह केवलणाणं दंसणमणंतविरियं च खइयसम्मं च । खइयगुणे मदियादी खओवसमिए य घादी दु ॥१०॥ केवलज्ञानं १ केवलदर्शनं २ अनन्तवीर्य ३ क्षायिकसम्यक्त्वं ४ चशब्दात् क्षायिकचारित्रं द्वितीयचशब्दात् क्षायिकदान-लाभभोगोपभोगाश्च एतान् नव क्षायिकगुणान् ; तु पुनः मतिश्रतावधिमनःपर्ययाख्यान् क्षायोपरामिकगुणान् च घ्नन्तीति घातीनि कर्माणि भवन्ति ॥१०॥ आयुःकर्मकार्यमाह कम्मकयमोहवडियसंसारम्हि य अणादिजुत्तम्हि । जीवस्स अवट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ कर्मकृते मोहवर्धिते अनादियुक्त एवम्भूते संसारे चतुर्गतिषु आयुःकर्मोदयः जीवस्यावस्थानं स्थिति कर्म हैं; क्योंकि वे जीवके ज्ञानादि गुणोंके घात करनेमें असमर्थ हैं ।।९।। अब ग्रन्थकार घातियाकर्मोंसे घात किये जानेवाले गुणोंको बतलाते हैं केवलज्ञान. केवलदर्शन, अनन्तवीर्य और क्षायिकसम्यक्त्व. तथा 'च' शब्दसे सचित मायिकचारित्र और क्षायिकदानादिरूप क्षायिक गुणोंको; तथा मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक गुणोंको भी ये ज्ञानावरणादि कर्म घात करते हैं, इसलिए उन्हें घातिया कर्म कहते हैं ॥१०॥ विशेषार्थ-क्षायिक भावके नौ भेद हैं-क्षायिकज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, तथा क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य । क्षायोपशमिक भावोंके अठारह भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि मनः पर्यय ये चार ज्ञान; कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान; चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन दर्शन; दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य; ये पाँच लब्धियाँ; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम । इन दोनों प्रकारके भावोंको घातने के कारण ज्ञानावरणादि कर्मोंको घातिया कहते हैं। अब अघातिया कर्मों में से पहले आयुकर्मका कार्य बतलाते हैं कर्मोके उदयसे उत्पन्न हुए मोह, अज्ञान, असंयम और मिथ्यात्व भावसे वृद्धिको प्राप्त इस अनादिकालीन संसारमें जो मनुष्यको हलि या खोडेके समान जीवको रोक रखे उसे आयुकर्म कहते हैं ॥११॥ १. गो० क. १० । २. गो० क० ११ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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