________________
US
कर्मप्रकृति तं पुण अट्ठविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा।
ताणं पुण घादि त्ति अघादि त्ति य होंति सण्णाओ ॥७॥ पुनः तत्सामान्यं कर्म ज्ञानावरणादिभेदेन अष्टविधं भवति । वा अथवा तत्कर्म प्रकृतिभेदेन अष्टचत्वारिंशच्छतविधं १४८ भवति । वा अथवा तत्कर्म असंख्यातलोकप्रमाणं भवति । वा शब्दोऽत्र समुच्चयार्थः । तेषां चाष्टविधादीनां पृथक-पृथक् घातिरिति अघातिरिति च द्वे संज्ञे भवतः ॥७॥ प्रथमोद्दिष्टाष्टविधं कर्म तद्धात्यघातिभेदौ च गाथाद्वयेन सूरिराह
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं ।
आउग णामं गोदंतरायमिदि अट्ठ पयडीओ ॥८॥ ज्ञानावरणं १ दर्शनावरणं २ वेदनीयं ३ मोहनीयं ४ श्रायुः ५ नाम ६ गोत्रं ७ अन्तराय ८ श्चेति मूलप्रकृतयोऽष्टौ ॥८॥
आवरण मोह विग्धं घादी जीवगुणधादणत्तादो ।
आउग णामं गोदं वेयणियं तह अधादि ति ॥९॥ ज्ञानावरणं १ दर्शनावरणं २ मोहनीयं ३ अन्तराय ४ श्चेति चत्वारि कर्माणि घातिनामानि स्यः । कुत: ? जीवानां ज्ञानादिगुणवात करवात् । आयुष्यं १ नाम २ गोत्रं ३ वेदनीयं ४ चेति चत्वारि कर्माणि ..
हैं और उस द्रव्यकर्मरूप पिण्डमें फल देनेकी जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं। अथवा उस शक्तिसे उत्पन्न हुए अज्ञानादि तथा रागादि भावोंको भो भावकर्म कहते हैं ॥६॥
वह कर्म मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा आठ प्रकारका भी है, अथवा उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा एक सौ अड़तालीस प्रकारका भी है, अथवा बन्धके कारणभूत कषायाध्यवसायस्थानोंकी अपेक्षा असंख्यात लोकोंके जितने प्रदेश होते हैं, उतने भेदरूप भी है । कर्मों के जो आठ भेद हैं, उनमें से चार कर्मोकी घातिसंज्ञा है और चार कोंकी अघातिसंज्ञा है ॥७॥
अब कोंके अाठ भेदोका निरूपण करते हैं - __ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्मोंके आठ मूलभेद हैं ।।८।।
विशेषार्थ-आत्माके ज्ञानगुणके आवरण करनेवाले कर्मको ज्ञानावरणीय कहते हैं। दर्शनगुणके आवरण करनेवाले कर्मको दर्शनावरणीय कहते हैं। सुख-दुःखका वेदन करानेवाले कर्मको वेदनीय कहते हैं। सांसारिक वस्तुओंमें मोहित करनेवाले कर्मको मोहनीय कहते हैं। नरकादि गतियों में रोककर रखनेवाले कर्मको आयु कहते हैं। नाना प्रकार के शरीरादिकके निर्माण करनेवाले कर्मको नाम कहते हैं। ऊँच और नीच कुलोंमें उत्पन्न करनेवाले कर्मको गोत्र कहते हैं। तथा इष्ट वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न करनेवाले कर्मको अन्तराय कहते हैं।
अब उक्त कर्मोंमें घाति-अघातिका विभाजन करते हैं
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं क्योंकि ये जीवके ज्ञानादि गुणोंका घात करते हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय, ये चार अघातिया
१. त पुद । ब पुध । २. गो० क०७ । ३. गो. क०८। भाव सं० ३३०। ४. गो० क०९।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org