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कर्मप्रकृति
गाथा-संख्या
११३-११४
सर्वघातिया प्रकृतियोंका नाम-निर्देश देशघातिया , " पुण्य प्रकृतियोंका पाप प्रकृतियों अनन्तानुबन्धी श्रादि चारों जातियोंकी कषायोंके कार्य संज्वलन आदि चारों जातियोंकी कषायोंका वासनाकाल पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंका वर्णन भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियोंका वर्णन जीवत्रिपाकी प्रकृतियोंका नाम-निर्देश नामकर्मकी सत्ताईस जीवविपाकी प्रकृतियोंका नाम-निर्देश
११८
१२०-१२१
१२२-१३६.
१२२
१२३-१२७
१२८
१२९ १३०-१३३
स्थितिबन्धमूलकर्मोंको उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण हत्ता प्रकृतियोंकी , कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बाँधनेका अधिकारी जीव कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति-बन्धका कारण-निरूपण विभिन्न प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध करनेवाले जीवोंका निरूपण मूलकर्मोंकी जघन्य स्थितिका निरूपण उत्तर प्रकृतियोंकी , शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बाँधनेवाले जीवका निरूपण एकेन्द्रिय और विकलचतुष्कके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के बन्धका निरूपण अनुभागबन्धशुभ और अशुम प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग-बन्धके कारणका निरूपण घातिया कर्मों के अनुभागकी चार जातियोंका वर्णन तथा उनमें देशघाती और सर्वघाती ।
अनुभागका विभाजन दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंके देशघाति-सर्वघाति अनुभागका विभाजन अघातिकर्मोंकी पुण्य और पाप प्रकृतियोंके अनुभागका वर्णन
१३५.१३७
१३८ १३९
१४०-१४३
१४०
.
१४१ १४२
..
१४३
१४४-१६१
१४४ १४५ १४६
प्रदेशबन्धज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके बन्धके विशेष कारणोंका निरूपण वेदनीय कर्मके दोनों भेदोंके असातावेदनीयके दर्शनमोहके चारित्रमोहके नरकायुके तिर्यगायुके मनुष्यायुके
१४७
१४८ १४९
१५०
१५१
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