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________________ कर्मप्रकृति प्रकृति-नाम दि० मान्यता श्वे० मान्यता . ५. सम्यग्मिथ्यात्व - जिसके उदयसे जीवके तत्त्व और जिसके उदयसे जीवके जिन-धर्ममें न अतत्त्वश्रद्धानरूप दोनों प्रकारके भाव हों। राग हो और न द्वेष हो। .. (प्रा० कर्म० गा०३८, न० , , १६) ६. जुगुप्सा - जिसके उदयसे जोव अपने दोष छिपावे जिसके उदयसे जीवके गन्दो वस्तुओंपर और परके दोष प्रकट करे। घृणा या ग्लानि हो। (कर्मप्र० टो० गा०६२) (प्रा० कर्मवि० गा० ६०, न० , टी० २२) ७. गतिनामकर्म - जिसके उदयसे जीव भवान्तरको जाता है। जिसके उदयसे जीवको मनुष्य, तिर्यच (कर्मप्र०६७) आदि पर्यायको प्राप्ति हो। ( कर्मवि० गा० २४ टोका ) ८. शरीरके संयोगी पांवों शरीरोंके संयोगी भेद १५ हैं। पांचों शरीर सम्बन्धी बन्धननामकर्मके ( कर्मप्र० गा० ६९) संयोगी भेद १५ होते हैं। (प्रा० कर्मवि० गा० ९३-१०१ न० , , ३७) ९. परघात जिसके उदयसे दूसरोंके घात करनेवाले जिसके उदयसे जीव दूसरे बलवानोंके शरीरके अवयव उत्पन्न हों, दाढ़ों में विष द्वारा भी अजेय हो वह परघातकर्म आदि हो। ( कर्मप्र० गा० ९५ टोका) है। (न० कर्मवि० गा० ४४) नोट - प्राचीनकर्म विपाकमें परघातका स्वरूप दि० स्वरूपके समान है। (प्रा० कर्मवि० गा० १२०) १०. आनुपूर्वीनामकर्म- जिसके उदयसे विग्रहगतिमें जीवका आकार जिसके उदयसे समश्रेणिसे गमन करता पूर्वशरीरके समान बना रहे। .. हुआ जीव विश्रेणि गमन करके उत्पत्ति ( कर्मप्र० गा० ९३ ) स्थानको पहुँचे। (कर्मवि० गा०२५ टो०) ११. स्थिरनामकर्म - जिसके उदयसे उन तपश्चरण करनेपर भी जिस कर्मके उदयसे दाँत, हड्डी, ग्रीवा परिणाम स्थिर रहें। ( राजवा० अ० ८) आदि शरीरके अवयव स्थिर रहें। जिसके उदयसे शरीरके धातु अधातु अपने (प्रा० कर्मवि० गा० १४०, अपने स्थानपर स्थिर रहें। न० , , ५०) ( कर्मप्र० गा० ९९ टी०) १२. अस्थिरनामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जरासे उपवासादि जिस कर्मके उदयसे जीभ, कान आदि करनेपर परिणाम चंचल हो जायें। अवयव चंचल रहे। (राजवा० अ० ८ सू०.") (प्रा० कर्मवि० गा० १४१, जिसके उदयसे शरीरके धातु-उपधातु, न० , टी० ५१) स्थिर न रहें। (कर्मप्र० गा० १०० टी०) १३. आदेयकर्म- जिसके उदयसे शरीरमें प्रभा हो। जिसके उदयसे जीवकी चेष्टा वचनादि ( कर्मप्र० गा० ९९ टीका ) सर्वमान्य हो। (प्रा० कर्मवि० गा०१४६ न० , ५१ टी०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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