SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना प्रकरणसंगत है । किन्तु यह गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड में प्रदेशबन्ध प्रकरणके भीतर ही दी गयी है । प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रदेश बन्ध- प्रकरण के भीतर पृथक्-पृथक् आठों कर्मोंके बन्ध-कारणोंका निरूपण किया गया है । यहाँ यह बात ज्ञातव्य है कि उक्त वर्णन गो० कर्मकाण्ड में प्रदेशबन्ध प्रकरणके भीतर न करके ग्रन्थके अन्तमें प्रत्यय-प्ररूपणा के अन्तर्गत किया गया है । इस प्रकरणमें जो गाथाएँ वहाँ पायी जाती हैं, वे ही त्यहाँ कर्मप्रकृति के प्रदेश बन्ध- प्रकरण में दी गयी हैं । और प्रदेशबन्ध सम्बन्धी वर्णन करनेवाली जो गाथाएं गो० कर्मकाण्डके प्रदेशबन्ध अधिकारके भीतर पायी जाती हैं, उनमें से एक भी गाथा यहाँ नहीं पायी जाती है । दोनों ग्रन्थोंके विषय निरूपणकी यह विभिन्नता यद्यपि दोनोंके एक कर्तृत्व में सन्देह उत्पन्न करती है, तथापि यतः बन्धका सम्बन्ध आस्रवसे है और तत्त्वार्थसूत्र आदि प्राचीन सूत्र एवं आगम ग्रन्थोंमें तत्प्रदोष, नव आदिको आस्रव कारणोंके रूपसे प्रतिपादन किया गया है, अतः उक्त परम्पराको सूचित करने या अपनाने की दृष्टिसे ग्रन्थकारने ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रधान बन्ध-कारणोंका यहाँ प्रतिपादन करना उचित समझा हो । जो कुछ भी हो, पर यहाँ एक बात अवश्य उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बरीय प्राचीन कर्म ग्रन्थोंको नवीन कर्मग्रन्य रूपसे रचनेवाले श्वेताम्बराचार्य देवेन्द्रसूरिने अपने कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थके अन्तमें कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ उक्त गाथाओंको स्थान दिया है, जब कि गर्ग ऋषि प्रणीत कर्मविपाक नामक प्राचीन प्रथम कर्मग्रन्थ में उक्त वर्णन इस स्थलपर नहीं है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि देवेन्द्रसूरिका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी है जब कि आचार्य नेमिचन्द्र विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं । दि० श्वे० कर्म-साहित्य में समता और विषमता मोटे तौरपर प्राचीन दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म - साहित्य में कोई विषमता या विभिन्नता नहीं है । किन्तु जब उनके स्थानपर नवीन पंचसंग्रह और नवीन कर्मग्रन्थोंकी रचना की गयी, तबसे कर्मप्रकृतियों के स्वरूपमें तथा उनके बन्ध, उदय, सत्त्व आदि सूक्ष्म बातोंके वर्णनमें कहीं कुछ विभिन्नता दृष्टि-गोचर होने लगी, इस बातका कुछ जिक्र मैंने दि० पंचसंग्रहकी प्रस्तावना में किया है । प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण ही प्रधानतासे किया गया है, अतः यहाँपर कुछ अन्तर है, वह दिखाया जाता है : प्रकृत ग्रन्थ में यतः केवल कर्म की जिन प्रकृतियोंके स्वरूप आदिमें प्रकृति - नाम १. निद्रा - २. प्रचला - ३. प्रचलाप्रचला - ४. सम्यक्त्वप्रकृति Jain Education International - दि० मान्यता जिसके उदयसे चलता व्यक्ति खड़ा रह जाये, खड़ा हुआ बैठ जाये और बैठा हुआ गिर जाये । ( कर्मप्र० गा० ५० ) इवे० मान्यता जिसके उदयसे हलकी नींद आये, सोता हुआ जीव जरा-सी आवाजसे जग जाये । ( प्रा० कर्मवि० गा० २२, न० कर्मवि० गा० ११ ) जिसके उदयसे खड़े-खड़े या बैठे-बैठे नींद आ जाये । ( प्रा० कर्मवि० गा० २३, न० कर्मवि० गा० ११ ) जिसके उदयसे मुखसे लार बहे और सोते- जिसके उदयसे मनुष्यको चलते-फिरते में जीवके हाथ-पाँव आदि चलें । भी नींद आ जाये । ( कर्मप्र० ५० ) जिसके उदयसे सम्यग्दर्शन में चल-मलिनादि दोष लगें । ( ( कर्मवि० गा० ११ ) जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञ-प्रणीत तत्त्व श्रद्धान करे । ( प्रा० कर्मवि० गा० ३७ १५) न० जिसके उदयसे जीव कुछ जागता और कुछ सोता-सा रहे । ( कर्मप्र० गा०५१ ) २३ > For Personal & Private Use Only " 21 www.jainelibrary.org.
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy