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कर्मप्रकृति
जब आत्मा क्रोधादि कषायोंके तीव्र उदयका निमित्त पाकर संक्लेश-परिणतिकी चरम सीमाको प्राप्त होता है उस समय उसके बंधनेवाले कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और जब कषायोंका उदय अत्यन्त मन्द होनेसे आत्मा विशुद्धिसे परिणत होता है, उस समय उसके बंधनेवाले कर्मोका जघन्य बन्ध होता है। उदाहरणके तौरपर मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रमाण ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल है । यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उस मिथ्यादृष्टि तीवकषायो जीवके होगा, जो संक्लेश परिणामोंकी चरमसीमा पर पहुँचा हुआ है । मोहनीयकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण अन्तर्मुहर्त काल है इतनी अल्प स्थितिवाला मोहकर्मका बन्ध उस जीवके होगा जो मिथ्यात्वके महागतसे निकल कर आत्मपरिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यग्दृष्टि हो ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़ता हुआ संयमी बनकर मोहकर्मकी २८ प्रकृतियोंमें-से २७ के नवीन बन्धका निरोध कर चुका है, पुरानी बंधी प्रकृतियोंके सत्त्वका विनाश कर चुका है, ऐसे कर्मक्षयके अभिमुख महासंयमीके नवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होगा। इसी प्रकारसे शेष कर्मों के उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धके विषयमें जानना चाहिए। स्थितिबन्धके उक्त नियमकी ३ प्रकृतियां अपवादरूप भी हैं-देवायु, मनुष्यायु और तिर्यगायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध उत्कृष्ट विशुद्धिको अवस्थामें होता है और जघन्य स्थितिका बन्ध उत्कृष्ट संवलेशको अवस्था में होता है । इस प्रकारसे सभी कर्म-प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका निरूपण प्रस्तुत ग्रन्थको गाथा १२२ से लेकर १३९वीं तक किया गया है ।
अनुभागबन्ध-बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंमें आत्माके संक्लेश या विशुद्ध परिणामोंका निमित्त पाकर जो सुख-दुःख या भले-बुरे फल देने की शक्ति पड़ती है, उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । घातिया कर्मों के अनुभागकी उपमा लता (वेलि), दारु (काठ), अस्थि (हड्डी) और शैल (पाषाण) के रूपमें दी गयी है । जिस प्रकार लतासे काठमें कठोरता अधिक होती है उससे हड्डी में और उससे अधिक पाषाणमें कठोरता अधिक पाई जाती है, उसी प्रकार संक्लेश परिणामोंके तर-तम भावसे ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोको ४७ प्रकृतियोंकी अनुभाग यानी फलदानशक्तिलता, दारु आदिके रूपसे चार प्रकारकी होती है । इसका अभिप्राय यह है कि उन प्रकृतियोंकी जैसी अनुभाग शक्ति होगी, उसीके अनुसार वे अपना फल भी होनाधिक रूपमें देंगी। यतः घातियाकर्मोको सभी प्रकृतियोंको पापरूप ही माना गया है, अतः उनका अनुभाग भी बुरे रूपमें ही अपना फल देता है । वेदनीय आदि चार अघातिया कर्मोंकी १०१ प्रकृतियोंका विभाजन पुण्य और पाप दोनोंमें किया गया है । सातावेदनीय, उच्चगोत्र आदि पुण्य प्रकृतियां है और असातावेदनीय, नोचगोत्र आदि पाप प्रकृतियाँ हैं । पाप प्रकृतियोंके अनुभागकी उपमा नीम, कांजी, विष और हालाहलसे दी गयी है। जैसे इन चारोंमें कड़वापन उत्तरोत्तर अधिक मात्रामें पाया जाता है, उसी प्रकारसे पापप्रकृतियोंमें अपने फल देनेकी शक्ति भी चार प्रकारकी पायी जाती है। पुण्य प्रकृतियोंके अनुभागकी उपमा गुड़, खाँड़, शक्कर और अमृतसे दी गयी है । जिस प्रकार इन चारोंमें मिष्टताकी मात्रा उत्तरोत्तर अधिक पायी जाती है उसी प्रकारसे पुण्य प्रकृतियोंके अनुभागमें भी चार प्रकारसे फल देनेकी शक्ति पायी जाती है। इस प्रकार कुछ अन्य विशेषताओंके साथ संक्षिप्त-सा वर्णन गा० १४० से लेकर १४३ तक किया गया है । अनुभागका विस्तृत विवेचन गो० कर्मकाण्डमें देखना चाहिए ।
प्रदेशबन्ध-प्रति समय आत्माके साथ बाँधनेवाले कर्मपुंज में जितने परमाणु होते हैं, उनका यथासम्भव सब कर्मों में जो विभाजन होता है, उसका नाम प्रदेशबन्ध है। इसका यह नियम है कि एक समय में बंधनेवाले कर्म-परमाणुओंमें-से आयुकर्मको सबसे कम परमाणु मिलते हैं, नाम और गोत्रकर्मको परस्परमें समान मिलते हुए भी आयुकर्मसे अधिक मिलते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मको परस्परमें समान मिलते हुए भी नाम-गोत्रकी अपेक्षा अधिक भाग मिलता है। इन तीनों घाति कर्मोकी अपेक्षा मोहकर्मको
और भी अधिक हिस्सा मिलता है और वेदनीय कर्मको मोहसे भी अधिक हिस्सा मिलता है। ग्रन्थकारने यह विभाजनका वर्णन संक्षेपके कारण इस स्थलपर नहीं किया है, किन्तु जैसा कि पहले बतलाया गया हैमूडबिद्रीको ताड़पत्रीय प्रतिमें उक्त अर्थकी प्रतिपादक 'आउगभागो थोओ' इत्यादि गाथा ग्रन्थके प्रारम्भमें पचीसवीं गाथाके पश्चात् पायी जाती है। उक्त वर्णनको उपयोगिता को देखते हुए उसका वहाँ होना
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