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________________ प्रस्तावना इन्द्रियों द्वारा दिखाई देता है, तथा वह पकड़ा और छोड़ा भी जाता है। "पूरणाद् गलनात् पद्गल:" इस निरुक्तिके अनुसार मिलना और बिछुड़ना इसका स्वभाव ही है। इस पुद्गल द्रव्यकी ग्राह्य-अग्राह्यरूपसे २३ प्रकारको वर्गणाएँ जैन सिद्धान्तमें बतलायी गयी है, उनमें से जो कर्म और नोकर्मवर्गणाएं हैं उन्हें यह जीव अपनी चंचलता रूप क्रियाके द्वारा प्रति समय अपने भीतर खींचता रहता है, जिस प्रकारसे कि लोहेका गरम गोला पानीके भीतर डाले जानेपर चारों ओरसे अपने भीतर पानीको खोंचता है। इनमें जो कर्मवर्गणाएं हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के रूपसे परिणत होती हैं और जो नोकर्मवर्गणाएं हैं, वे शरीर रूपसे परिणत होती हैं । इन कर्मवर्गणाओंको ही आत्मासे संबद्ध हो जानेपर द्रव्यकर्म कहा जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थमें इसी द्रव्यकर्मका सांगोपांग विवेचन किया गया है। द्रव्यकर्मके मूलमें आठ भेद हैं-१ ज्ञानावरण २ दर्शनावरण ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयु ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय। आत्माके जाननेकी शक्तिको ज्ञान कहते हैं और इस ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको ज्ञानावरण कहते हैं। आत्माके देखने की शक्तिको दर्शन कहते हैं और उस दर्शन गुणके आवरण करनेवाले कर्मको दर्शनावरण कहते हैं। सुख और दुःखके अनुभव करानेवाले कर्मको वेदनीय कहते हैं। सांसारिक पदार्थों में मोहित करनेवाले कर्मको मोहनीय कहते हैं। मनुष्य-तिर्यंचादिके किसी एक शरीरमें नियत काल तक रोक रखनेवाले कर्मका नाम आयुकर्म है। मनुष्य-तिर्यंच आदिके शरीर, अंग-उपांग आदि बनानेवाले कर्मको नामकर्म कहते हैं। ऊंच-नीच कुलोंमें उत्पन्न करनेवाले कर्मका नाम गोत्रकर्म है और · जिसके उदयसे जीव मनोवांछित वस्तुको न पा सके उसका नाम अन्तराय कर्म है। प्रस्तुत ग्रन्थमें गाथा ८ से लेकर ३५वी गाथा तक उक्त आठों कर्मों के स्वरूप आदिका दृष्टान्तपूर्वक बहुत सुन्दर ढंगसे विवेचन किया गया है, जिसे विशेष जिज्ञासुओंको वहींसे देखना चाहिए। उक्त आठों कर्मों के उत्तरभेद जिन्हें कि उत्तर प्रकृति कहते हैं, इस प्रकार बतलाये गये हैं - ज्ञानावरणके ५, दर्शनावरणके ९, वेदनीयके २, मोहनीयके २८, आयुके ४, नामके ९३, गोत्रके २ और अन्तरायके ५ । ये सब मिलकर आठों कोंके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस (१४८ ) हो जाते हैं। मूल आठ कर्मोको दो भागोंमें विभक्त किया गया है-१ घातिकर्म और २ अघातिकर्म । जो कर्म आत्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंका घात करते हैं उन्हें घातिकर्म कहते हैं । ऐसे घातिकर्म चार हैं - १ ज्ञानावरण २ दर्शनावरण ३ मोहनीय और ४ अन्तराय । जो कर्म आत्म-गुणोंके घातने में असमर्थ हैं, उन्हें अघातिकर्म कहते हैं। उनके भी चार भेद हैं - १ वेदनीय, २ आयु, ३ नाम और ४ गोत्र । घातिकर्मके भी दो भेद हैं - १ देशघाति और २ सर्वघाति । जो कर्म आत्म-गुणोंको पूरे रूपसे घातते हैं उन्हें सर्वघाति कहते हैं और जो आत्म-गुणोंके एक देशको घातते हैं, उन्हें देशघाति कहते हैं। ऊपर जो आठों कर्मोके उत्तरभेद बताये गये हैं, उनमें घातिया कर्मों के ४७ उत्तरभेद हैं। इनमें से २१ प्रकृतियाँ तो सर्वघाती हैं और २६ प्रकृतियाँ देशघाती हैं। घातिया कर्मों को पाप रूप ही माना गया है, किन्तु अघातिया कर्मोमें पुण्य और पाप दोनों रूप पाये जाते हैं । इसका विशद विवेचन भी ग्रन्थमें यथास्थान किया गया है। बन्धके भेद कर्म-बन्धके चार भेद होते है--१ प्रकृतिबन्ध २ स्थितिबन्ध ३ अनुभागबन्ध और ४ प्रदेशबन्ध । प्रकृतिबन्ध-प्रतिसमय आनेवाले कर्मपरमाणओंमें आत्माके रागादि परिणामोंके निमित्तसे जो ज्ञानदर्शन आदि गुणोंको आवरण करनेका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। प्रकृतिबन्धके ज्ञानावरण आदिक आठ मूल भद हैं, इन्हीं के उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस होते हैं और तर-तम भावोंकी अपेक्षा असंख्यात भेद होते हैं । प्रस्तुत नन्थमें प्रकृतिबन्ध प्रकरणके भीतर कर्मों के १४८ भेदोंका स्वरूप गा० १२१ लाया गया है, जिसे विस्तार भयसे यहाँ नहीं दे रहे हैं । पाठक ग्रन्थसे ही ज्ञात करें। स्थितिबन्ध-आने वाले कर्म-परमाणु जितने कालतक आत्माके साथ बंधे रहते हैं, उस कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। यह स्थितिबन्ध दो प्रकारका है-उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्ध । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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