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कर्म प्रकृति
रचयिताको प्रशस्ति आदि हो। इससे उसके कर्त्ता आदिके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । केवल इतना अवश्य कह सकते हैं कि आपके सामने भ० मल्लिभूषण सुमतिकीत्तिकी संस्कृत टीका नहीं थी । अन्यथा अपनी वचनिका में आप उसका अवश्य ही भरपूर उपयोग करते - या यों कहना चाहिए कि उसीको आधार बनाकर आप अपनी भाषा टीका लिखते ।
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संस्कृत टीकाकार के समान आपने भी 'कर्मप्रकृति' को 'कर्मकाण्ड' नामसे उल्लेख किया है और टीकासमाप्तिपर जो इति वाक्य लिखा है, उसमें स्पष्ट शब्दों के द्वारा अपनी टीकाको 'कर्मकाण्ड' की टीका घोषित किया है । पर यह गो० कर्मकाण्ड से भिन्न एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है, यह बात मैं पहले ही बतला आया हूँ ।
विषय - परिचय
प्रस्तुत ग्रन्थका नाम कर्मप्रकृति है और इसमें अपने नामके अनुरूप ही कर्मोकी प्रकृति यानी स्वभाव या स्वरूपका वर्णन किया गया है ।
यहाँ स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि कर्म क्या वस्तु है, और इसे स्वीकार करनेकी क्या आवश्यकता है, कर्मको मानने की आवश्यकता हमारे महर्षियोंको इसलिए हुई कि तर्ककी कसोटीपर कसने या जाँचे जानेपर संसारका स्रष्टा ईश्वर आदि कोई सिद्ध नहीं होता । उसके विषय में इतने प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि न कोई जगत्का सर्जनहारा सिद्ध होता है और न असंख्य जातिका जगत्-वैचित्र्य किसी एकके द्वारा रचा जाना सम्भव है । वस्तुतः प्रत्येक प्राणी अपने व्यक्तिगत जगत्का स्वयं स्रष्टा है ! वह स्वयं कैसे अपने शरीरादिका स्रष्टा है, यह बात कर्मसिद्धान्त के विवेचन और मननसे पाठकोंको स्वयं ही भली-भाँति विदित हो जायेगी । यतः ईश्वरके जगत्-कर्तृत्वका खण्डन या निराकरण जो न्यायके ग्रन्थोंमें बहुत अच्छी तरह किया गया है, अतः यहाँ पर उसकी चर्चा करना आवश्यक नहीं है । कर्म क्या वस्तु है ?
इसका उत्तर यह है कि राग-द्वेषसे संयुक्त इस संसारी जीवके भीतर प्रतिसमय जो परिस्पन्दरूप एक प्रकारकी क्रिया होती रहती है उसके निमित्तसे आत्मा के भीतर एक प्रकारका बीजभूत अचेतन द्रव्य आता है और वह राग-द्वेष रूप परिणामोंका निमित्त पाकर आत्माके साथ बंध जाता है । समय पाकर वही बीजभूत द्रव्य सुख-दुःखरूप फल देने लगता है, इसे ही कर्म कहते हैं । जीवके साथ इस प्रकार के कर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है। ऐसा नहीं है कि जीव अनादिकाल से सर्वथा शुद्ध चैतन्य रूपमें था, पीछे किसी समय उसका कर्मके साथ सम्बन्ध हो गया हो । ग्रन्थकारने इसी बात को अपने ग्रन्थकी दूसरी ही गाथा में यह दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार खानके भीतर स्वर्ण और पाषाणका अनादिकालीन सम्बन्ध चला आ रहा है, उसी प्रकार जीव और कर्मका भी अनादिकालीन सम्बन्ध स्वयं सिद्ध जानना चाहिए ।
किये गये हैं - एक कर्मद्रव्य आत्माकी
यतः जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादिसे है, अतः मोटे तौरपर कर्मके दो भेद भावकर्म और दूसरा द्रव्यकर्म । जीवके जिन राग-द्वेषरूप भावोंका निमित्त पाकर अचेतन ओर आकृष्ट होता है, उन भावोंका नाम भावकर्म है और जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्माके भीतर आता है। उसका नाम द्रव्यकर्म है । इस द्रव्य और भावकर्मकी ऐसी ही कार्य-कारण परम्परा अनादिसे चल रही है कि राग-द्वेषरूप भावकर्मका निमित्त पाकर द्रव्यकर्म आत्मासे बँधता है और उसका निमित्त पाकर आत्मामें पुनः राग-द्वेषका उदय होता है ।
द्रव्यकर्म क्या वस्तु है ? इसका उत्तर यह है कि जैनदर्शनकी मान्यता के अनुसार दो प्रकारके द्रव्य संसार में पाये जाते हैं - १ चेतन, २. अचेतन । अचेतन द्रव्य भी पाँच प्रकारके हैं - धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । इनमें से प्रकार के चार द्रव्य तो अमूत्र्तिक एवं अरूपी हैं, अतः वे इन्द्रियोंके अगोचर हैं और इसीसे अग्राह्य भी हैं। केवल एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जो मूत्र्तिक और रूपी है और इसीसे वह
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