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________________ प्रस्तावना १९ विशेषता यह है कि आपने मूलमें दिये हुए प्रायः प्रत्येक विषयको खुलासा करने का प्रयत्न किया है। अनेक स्थलोंपर स्वयं ही शंकाएँ उठाकर आगमानुकूल उनका समाधान किया है। यद्यपि यह टीका ढंढारी भाषामें पुरानी शैलीके ढंगपर लिखी गयी है, तथापि यह सुबोध है और जिन लोगोंने ढुंढारी भाषामें लिखी गयी वचनिकाओंका स्वाध्याय नहीं भी किया है, उन्हें भी इसके समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। फिर भी ढुंढारी भाषामें लिखे गये कुछ मुहावरोंकी सूचना करना आवश्यक है, ताकि पाठकोंको समझने में सुगमता होये। बहुरि-यह शब्द पुनःके अर्थमें व्यवहार किया जाता है । अरु-यह औरका ही अपभ्रंश रूप है । . जातें-यह यतः के अर्थमें प्रयुक्त होता है, जिसे हिन्दुस्तानीमें 'चूंकि' कहते हैं । तातें-यह ततः के अर्थमें प्रयुक्त होता है, जिसे हिन्दी में 'इसलिए' लिखा जाता है । कै-यह वर्तमानमें प्रयुक्त कि' के स्थानमें लिखा गया है। करि-यह तृतीया विभक्तिके अर्थमें प्रयोग किया जाता है यथा - ज्ञानकरि अर्थात् ज्ञानके द्वारा। नि-इसका प्रयोग जिस शब्दके अन्तमें किया जाये उससे षष्ठी विभक्तिके बहवचनका अर्थ समझना चाहिए। जैन कर्मनिकरिका अर्थ कर्मोके द्वारा। ह-इसका प्रयोग भी षष्ठी विभक्तिके बहुवचनमें किया गया है। यथा - कर्महकी दशाका अर्थ कर्मोकी दशा है। कहीं-कहीं इसका प्रयोग 'हो' के अर्थमें भी हआ है। जु-का प्रयोग 'जो' के अर्थमें हुआ है। सु-का प्रयोग 'सो' के अर्थमें हुआ है। विषे-या विपैं-का प्रयोग सप्तमी विभक्तिके अर्थमें होता है । यथा - कुल विर्षे यानी कुल में । ताई-का अर्थ 'तक' है । जैसे - छठे ताई - अर्थात् छठे गुणस्थान तक । कह्या-कहा। काहे-क्यों, किस कारण । संते--संस्कृत के 'सति' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैसे ज्ञानके होते संते यानी ज्ञानके होते हुए । इसी प्रकारके कुछ और भी शब्दोंका प्रयोग इस भाषा टोकामें हुआ है जिनका कि अर्थ पढ़ते हुए ही पाठकोंको समझमें आ जायेगा। यह तो हुई टीकाकी भाषाके विषय में सूचना । अर्थक विषयमें भी कुछ बातें सूचनाके योग्य हैं । यद्यपि भाषा टीकाकारने प्रत्येक पारिभाषिक शब्दकी व्याख्या करने में पूरी सावधानी रखी है और जहाँतक सम्भव हुआ- आगमानुकूल ही अर्थ किया है, पर कुछका अर्थ फिर भी विचारणीय है। जैसे सप्तभंगोंके स्वरूपमें पाँच, छठे, सातवें भंगका स्वरूप; गाथा ३७ की टोकामें 'नियमित' का अर्थ; इसीके भावार्थमें क्षिप्र-अक्षिप्रका अर्थ; ध्रुव-अध्रुवका अर्थ विचारणीय है। बहु-ईहाके अर्थको करते हुए 'बहुतको सन्देहरूप जानना' भी विचारणीय है । इनके अतिरिक्त कुछ और भी स्थल विचारणीय हैं, जिन्हें विद्वज्जन तो सहज ही समझ जायेंगे और साधारण जन प्रारम्भ में दी हुई संस्कृत टीकासे निर्णय कर सकेंगे। भाषा टीकाको शैलीको देखते हुए इसे हिन्दीभाष्य कहना उपयुक्त होगा, क्योंकि मूलमें अनुक्त ऐसे कितने ही विषयोंकी चर्चा स्वयं शंका उठा करके की गयी है। कितने ही गूढ़ विषयोंका भावार्थ में स्पष्टीकरण किया गया है । इससे यह भाषा टीका स्वाध्याय करनेवालोंके लिए बहुत ही उत्तम है। इसी बातको देख करके हमारे प्रधान सम्पादकोंने इसके प्रकाशनकी भावना प्रकट कर सहर्ष स्वीकृति प्रदान को । पं० हेमराजजीने अपनी भाषा टीका जिस संस्कृत टीकाके आधारपर की है और जिसके वाक्य बीचबीचमें देकर अपनी टीकाको समृद्ध किया है, उसके आदिमें न कोई मंगलाचरण पाया जाता है और न अन्तमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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