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________________ १८ कर्मप्रकृति अवसर ७२९ वर्षके शेष रहनेपर, तीसरा २४३ वर्षके शेष रहनेपर, चौथा ८१ वर्षके शेष रहनेपर, पांचवां २७ वर्षके शेष रहनेपर, छठा ९ वर्षके शेष रहनेपर, सातवां ३ वर्षके शेष रहनेपर, और आठवाँ १ वर्षके शेष रहनेपर प्राप्त होगा। आयुबन्धके उक्त आठों अवसरोंको आगमकी भाषामें अपकर्षकाल कहते हैं । यदि उक्त जीवके आठवें अपकर्षकाल अर्थात् एक वर्षके शेष रहनेपर भी आयुबन्ध न हो सके, तो मरणके कुछ समय पूर्व तो वह नियमसे होगा। यहाँ एक विशेष बात ज्ञातव्य है कि कोई जीव एक अपकर्षकालमें ही नवीन भवकी आयुका बन्ध करते हैं, कोई दो अपकर्षकालोंमें, कोई तीन अपकर्षकालोंमें; इस प्रकारसे बढ़ते हुए कितने ही जीव आठों ही अपकर्ष कालोंमें नवीन भवको आयुका बन्ध करते हैं। किन्तु इतना निश्चित . जानना चाहिए कि एक बार जिस गति-सम्बन्धी आयुका बन्ध हो जायेगा, आगामी दूसरे-तीसरे आदि अपकर्षकालोंमें उसी ही आयुका बन्ध होगा, उससे भिन्न अन्य आयुका नहीं। आठों अपकर्षों में आयुका बन्ध करनेवाले जीव सबसे कम पाये जाते हैं, सातमें उससे अधिक । इसी प्रकार उत्तरोत्तर अधिक-अधिक जानना चाहिए। कुछ सन्दिग्ध स्थलोंके निर्णयार्थ मैंने गाथाओंके टीका पाठ मिलानके लिए श्री कस्तूरचन्द्रजी काशलीवालको लिखा था, कि यदि और भी प्राचीन प्रतियां जयपुरके भण्डारोंमें हों, तो आप उन्हें भेजिए। वे प्रति तो नहीं भिजवा सके पर सन्दिग्ध स्थलोंका मिलान कर पाठभेद आदि भिजवाये। उसमें प्रस्तुत संस्करणके अन्तर्गत मूल गाथांक १४२ के नीचे पादटिप्पणमें आमेर प्रतिका पाठ दिया है, वह इन दोनों ही टीकाओंसे सर्वथा भिन्न है । जयपुरसे इस प्रतिका जो परिचय प्राप्त हुआ है, उससे ज्ञात होता है कि यह टीका सुमतिकीत्तिको पहली टीकासे भी प्राचीन है, क्योंकि वह प्रति वि० सं० १५७७ के आषाढ़ सुदी ३ को लिखी हुई है। जब कि सुमतिकीत्तिको टोका १६२० के आस-पासको लिखी है। प्रयत्न करनेपर भी हम उस प्रतिको नहीं प्राप्त कर सके । यदि वह मिल जाती तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता कि एक और प्राचीन तथा विस्तृत टीका कर्मप्रकृतिको है। (२) गा० ३७ की टीकामें मतिज्ञानके अवग्रहादि चारों भेदोंका बहुत ही थोड़े शब्दोंमें सुन्दर स्वरूप दिया गया है। इतने स्वल्प शब्दोंमें अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाका इतना सुन्दर स्वरूप अन्य दोनों टोकाओंमें नहीं आया। (३) गा० ६९ में पांचों शरीरोंके संयोगी १५ भेदोंको एक संदृष्टि-द्वारा बहुत ही सुन्दर ढंगसे दिखलाया गया है। यह संदृष्टि भी शेष दोनों टीकामें नहीं पायी जाती। (४) गा०८४ में छहों संहनन-धारियोंके स्वर्ग-गमनकी योग्यता भी एक संदष्टि-द्वारा प्रकट की गयो। है। इस संदृष्टि में एक विशेषता और भी है और वह यह कि संहननके साथ उसके धारक स्त्री या पुरुष दोनोंका नामोल्लेख कर दिया गया है। (५) गा०८५-८६ की टीकामें उक्त संहनन-धारियोंके नरक-गमनकी योग्यता भी एक संदृष्टि-द्वारा बतलायी गयी है। (६) गा०८७ की टीकामें संहनन-धारियोंके गुणस्थानोंका निरूपण एक संदृष्टि-द्वारा किया गया है। उक्त दोनों संदृष्टियां भी शेष दोनों टीकाओंमें नहीं दी गयी हैं। (७) गा० १३२-१३३ की टोकामें सिद्धान्त ग्रन्थोंसे एक प्राकृत गद्यका उद्धरण देकर उत्कृष्ट, मध्यम और ईषत् संक्लेशका स्वरूप समझाया गया है । टोका बहुत सुगम है । प्रत्येक स्वाध्याय-प्रेमीको इसका अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। पं० हेमराजजी कृत भाषा टीका प्रस्तुत संस्करणमें मूलग्रन्थ, भ० मल्लिभूषण-सुमतिकीतिको संस्कृत टीका और अनुवादके पश्चात् पं० हेमराजजी कृत भाषा टीका भी दी जा रही है। पण्डितजी आजसे लगभग ३०० वर्षके पर्व हुए हैं। उन्हें जो संस्कृत टीका प्राप्त हुई, उसीके आधारपर आपने भाषा टीका लिखी है। इस भाषा टीकाकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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