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प्रस्तावना
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स्य चक्रे सुमतिकोतियुक्' कहकर उसे 'टोका' नाम भी दिया है । यद्यपि सूक्ष्म दृष्टिसे भाष्य और टीका में अन्तर है, वह यह कि टीका तो मूलमें दिये गये पदोंके अर्थका ही स्पष्टीकरण करती है, किन्तु भाष्य उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त सभी प्रकारको बातोंको स्पष्ट करता है, साथ ही स्वयं शंकाएँ उठाकर उनका समाधान करना यह भाष्यको विशेषता होती है । इस दृष्टि से देखनेपर सुमतिकोत्ति के शब्दों में इसे भाष्य और टीका दोनों ही कहा जा सकता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में कर्मके विषयका निरूपण किया गया है और जहाँतक विषय प्रतिपादनका सम्बन्ध है, वह आगम-परम्परा के अनुकूल ही है । फिर भी अनेक स्थलोंपर हमें कुछ विशेषताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं, जो कि इसके पूर्ववर्ती दिगम्बर साहित्य में नहीं पायी जातीं। हालाँकि श्वेताम्बर साहित्य में वे पायी जाती हैं । उदाहरण के रूपमें छह संहनतोंकी आकृतियोंको लिया जा सकता है, जिन्हें कि प्रस्तुत संस्करण में छपाईकी कठिनाई के कारण टोका स्थानपर न देकर परिशिष्ट में दिया गया है। वस्तुतः संहननोंकी उक्त आकृतियाँ अर्थ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं और उनपर विद्वानोंको विचार करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मका स्वरूप बतलाते हुए 'वा' कहकर एक-एक और भी लक्षण दिया है, जो मुझे दिगम्बर-परम्परा के शास्त्रोंमें दृष्टिगोचर नहीं हुआ है । इसी प्रकार अन्तरायकर्मको पाँचों प्रकृतियोंको परिभाषा भी दो-दो प्रकारसे दी है, जो कि अपनी एक खास विशेषता रखती है ।
शेष टीका अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थोंकी आभारी है । कर्म- प्रकृतियोंके स्वरूपका बहुभाग सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति और गो० कर्मकाण्डकी टोकासे ज्योंका-त्यों या कहीं-कहीं थोड़े-से शब्द परिवर्तन के साथ लिया गया है ।
गा० ७६ की टोका करते हुए मूलमें प्रयुक्त "अणाइणिहणारिसे उत्तं" का अर्थ बड़ा विलक्षण किया गया है - " इति संहननं षड्विधं अनादिनिधनेन ऋषिणा भणितं आद्यन्तरहितेन ऋद्धिप्राप्तेन वृषभदेवेन कथितम्।” अर्थात् इस प्रकार छह प्रकारका संहनन आदि अन्तरहित, ऋद्धिप्राप्त वृषभदेवने कहा । वस्तुतः उक्त गाथाचरणको संस्कृत छाया यह है - ' अनादिनिधनार्पे भणितम्' इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि ये छह संहनन अनादि-निधन आर्ष अर्थात् ऋषिप्रणीत आगममें कहे गये हैं । सम्भवतः प्राकृतभाषाकी ठीक जानकारी न होनेसे उक्त अर्थ किया गया प्रतीत होता है ।
दूसरी संस्कृत टीका
प्रस्तुत संस्करण में किसी अज्ञात आचार्य रचित एक और संस्कृत टीका प्रकाशित की गयी है । इसके आदि और अन्त में रचनेवाले के नाम आदिका कोई भी उल्लेख नहीं मिलता । यद्यपि यह संक्षिप्त है और . अनेक स्थलोंपर पं० हेमराजकृत भाषा टीकाके साथ समान है, तथापि कुछ स्थलोंपर अपनी विशेषताओं को भी लिये हुए है । अतः हमारे प्रधान सम्पादक महोदयोंने इसे भी प्रकाशित करनेकी अनुमति प्रदान की । इसकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं
( १ ) गा० २४ की टीका में दो प्राचीन गाथाएँ देकर यह बतलाया गया है कि कर्मभूमियाँ मनुष्यतिर्यंचोंके आगामी भवकी आयुका बन्ध कब होता है । आगमके अनुसार वर्तमान भवकी दो त्रिभाग प्रमाण आयुके बीतनेपर और एक त्रिभाग के शेष रहनेपर एक अन्तर्मुहूर्तकाल तक आगामी भवकी आयु के बाँधने का अवसर आता है, यदि इस अवसरपर वह न बँध सके, तो शेष आयुके भी दो त्रिभागके बीतने और एक त्रिभाग के शेष रहनेपर पुनः दूसरा अवसर आता है। इस प्रकार जीवन में आठ अवसर आते हैं । यदि इनमें से किसी भी अवसरमें आगामी भवकी आयु न बँध सकी हो तो मरणके कुछ क्षण पूर्व अवश्य ही नवीन आयुका बन्ध हो जाता है | गाथाओं में वर्णित इसी त्रिभाग के क्रमको टीकाकारने अंकसंदृष्टि देकर स्पष्ट किया है कि यदि किसी मनुष्यको वर्तमान भव सम्बन्धी आयु ६५६१ वर्षको मानी जाये, तो दो त्रिभागके बीतने और २१८७ वर्षप्रमाण एक विभाग के शेष रहनेपर, पहला अवसर आयुबन्धका प्राप्त होगा । दूसरा
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