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________________ कर्मप्रकृति गया है और अपने लिए एक भी विशेषणका प्रयोग न करके केवल 'सुमतिकीत्तियुक्' इतना मात्र लिखा है, उससे यह बात असन्दिग्ध रूपसे सिद्ध है कि वस्तुतः आदि मंगल-श्लोकोंसे लेकर अन्तिम प्रशस्ति-श्लोकों तक टीकाकी रचना सुमतिकोत्तिने ही की है। किन्तु संशोधन-परिवर्धनादि करने के कारण कृतज्ञता-ज्ञापनके लिए उन्होंने अपने गरुके नामका भो रचयिता रूपसे उल्लेख कर दिया है। इसके अतिरिक्त प्रशस्तिके अन्त में जो पुष्पिका दो है, उससे भी मेरे उक्त अनुमानकी पुष्टि होती है। वह इस प्रकार है "इति भट्टारकज्ञानभूषणनामाङ्किता सूरिश्रीसुमतिकीर्तिविरचिता कर्मकाण्डस्य टीका समाप्ता।" एक भ्रम-ऊपरके उद्धरणोंको देखते हुए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि संस्कृत टीकाकारने प्रस्तुत ग्रन्थको कर्मकाण्ड ही समझ लिया है। जब कि यह ग्रन्थ गो० कर्मकाण्डके पहले और दूसरे अधिकारसे ही सम्बन्ध रखता है और विवेचन-पद्धतिको देखते हुए वह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और विषयको दृष्टिमे 'कर्मप्रकृति' हो उसका यथार्थ नाम है। टीकाकार-परिचय प्रस्तुत कर्मप्रकृतिको टीकाके अन्तमें जो प्रशस्ति दी हुई है, वह बहुत संक्षिप्त है। इन्हीं सुमतिकोत्तिने प्राकृत पञ्चसंग्रहकी भी टीका लिखी है और उसके अन्तमें एक विस्तृत प्रशस्ति दी है, जिसके द्वारा उनकी गुरुपरम्परापर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उसका सार इस प्रकार है ___ "आचार्य कुन्दकुन्दके मूलसंघमें क्रमशः पद्मनन्दी, देवेन्द्रकोति, मल्लिभूषण हुए। उनके पट्टपर अनेक शिष्योंवाले भ० लक्ष्मीचन्द्र हुए। उनके पट्टपर वीरचन्द्र हुए, उनके पट्टपर ज्ञानभूषण हुए । और उनके पट्टपर प्रभाचन्द्र हुए। इनमें से लक्ष्मीचन्द्र सुमतिकीत्तिके दीक्षागुरु और वीरचन्द्र तथा ज्ञानभूषण शिक्षागुरु थे।" प्रारम्भको गुरुपरम्पराके पश्चात् लक्ष्मीचन्द्र, उनके शिष्य वीरचन्द्र , उनके शिष्य ज्ञानभूषणका उल्लेख सुमतिकीत्तिने इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें भी किया है। उक्त कथनसे इस बातमें कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि सुमतिकोत्तिके शिक्षागुरु श्रीज्ञानभूषण थे। उक्त परिचयके अतिरिक्त दोनों ही प्रशस्तियोंसे न टीकाकारके माता-पिताका ही परिचय प्राप्त होता है और न उनके जन्मस्थान, जाति आदिका हो । हाँ, पञ्च संग्रहको प्रशस्तिसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उन्होंने पञ्चसंग्रहकी टोकाको समाप्ति ईलाव (?) नगरके श्रीआदिनाथचैत्यालयमें की। यह ईलावनगर ईडर है, या अन्य कोई नगर, यह अन्वेषणीय है। ईडर-गादीको भट्टारक-परम्परासे सम्भवतः इसका निर्णय किया जा सकेगा। टीकाकारका समय यद्यपि कर्मप्रकृतिको टोकाके रचनेके समयका कोई उल्लेख इसको प्रशस्तिमैं नहीं दिया गया है, तथापि पञ्चसंग्रहको प्रशस्तिमें उसकी टोकासमाप्तिका स्पष्ट निर्देश किया गया है। वह टोका वि० सं० १६२० में समाप्त हुई है, अत: इसके रचे जानेका समय भी इसीके आस-पास होना चाहिए। अधिक सम्भावना तो यह है कि पञ्चसंग्रहको टोकाके पूर्व ही कर्मप्रकृतिको टोका रची गयी है। इसके दो कारण हैं-एक तो यह कि पञ्चसंग्रहको अपेक्षा कर्मप्रकृति स्वल्प परिमाणवाली है, दूसरे सुगम भी है, जब कि पञ्चसंग्रह विस्तृत एवं दुर्गम है। इसके अतिरिक्त पञ्चसंग्रह-जैसे दुर्गम एवं विस्तृत ग्रन्थकी टोकापर तो केवल सुमतिकोत्तिका ही नाम अंकित है, जब कि कर्मप्रकृतिको टोकापर उनके नामके अतिरिक्त उनके गुरु ज्ञानभूषणका भी नाम अंकित है। इससे यही सिद्ध होता है कि सुमतिकीत्तिने अपने जोवनके प्रारम्भमें कर्मप्रकृतिको टोका गुरुके साहाय्यसे की । पीछे विद्या और वयमें प्रौढ़ हो जानेपर पञ्चसंग्रहकी टोकाका उन्होंने स्वयं निर्माण किया। . टीकागत-विशेषताएँ टोकाकारने अपनी टीकाका प्रारम्भ करते हुए 'भाष्यं हि कर्मकाण्डस्य वक्ष्ये भव्यहितंकरम्' इस प्रतिज्ञाश्लोकके द्वारा अपनी रची जानेवाली कृतिको 'भाष्य' कहा है और ग्रन्थ-समाप्तिपर 'टीका ही कर्मकाण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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