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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन घादी णीचमसादं णिरयाऊ णिरय- तिरियदुग जादी । संठाण-संहदीणं च पण पणगं च वण्णचऊ ॥११३॥ उवघादमसग्गमणं थावरदसयं च अप्पसत्था हु | घुद पडि भेदे अडणवदि सयं दु चदुरसीदिदरे ॥ ११४ ॥ आगे अप्रशस्त प्रकृति कहैं हैं घातीनि चत्वारि चार घातियाकर्म अप्रशस्त हैं, ज्ञानावरणकी ५ दर्शनावरणकी ९ मोहनीय की २८ अन्तरायकी ५ ये घातियानिकी ४७ प्रकृति, नीचं नीचगोत्र, असातं असातावेदनीय, नरकायुः नारक आयु, नरकद्विकं नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यद्विकं तियंचगति तियचगत्यानुपूर्वी, जातयश्चतस्रः एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय यह चार प्रकार जाति, संस्थानानि पञ्च – न्यग्रोधपरिमंडल स्वाति कुब्जक वामन हुडक ये पंच संस्थान, संहननानि पश्ञ्च – वज्रनाराच नाराच अर्धनाराच कीलक सृपाटिक ये पंच संहनन, वर्णचतुष्कं अशुभवर्ण ५ अशुभगन्ध १ अशुभरस ५ अशुभस्पर्श ८ यह वर्ण चतुष्क, उपघात उपघात, असद्गमनं अप्रशस्तगति, स्थावरदशकं स्थावर १ सूक्ष्म २ अपर्याप्त ३ साधारण ४ अस्थिर ५ अशुभ ६ दुर्भग ७ दु:श्वर = अनादेय अयशःकीत्ति १० ये स्थावरदशक, एताः अप्रशस्ताः ये १०० प्रकृति अप्रशस्त जाननी, । एताः बन्धोदयौ प्रति भेदेन अष्टनवतिः शतं च भवन्ति ये ही अप्रशस्त प्रकृति बन्ध अरु उदयप्रति भेदविवक्षाकरि अट्ठानवै अरु सौ होय हैं । भावार्थभेद बन्धविषे ६८ भेदोदयविषे १०० अप्रशस्त प्रकृति हैं, जाते बन्धकालविषे दर्शनमोह मिथ्यात्वरूप ही बन्ध है तातें मिश्रमिध्यात्व सम्यक्त्व प्रकृतिमिथ्यात्व इन दोय बिना अट्ठानवै प्रकृति भेदबन्धविषे कहीं जातें उदयकालविषे दर्शनमोह त्रिधारूप उदय है तातें भेदोदयविषे एकसौ १०० प्रकृति कहीं । इतरे द्वयशीतिः चतुरशीतिश्च भवन्ति, अरु एई प्रकृति इतरें अभेदविवक्षाविषे बयासी अरु चौरासी हैं। भावार्थ - अभे दबन्धविषे ८२ अभेदोदयविषे ८४ एई अप्रशस्त प्रकृति. होय हैं, जातें अभेदविवक्षा में वर्णचतुष्ककी २० प्रकृतिर्विषे लीजे, अरु बन्धकालविषें दर्शन मोह में मिथ्यात्व ही है तातें २ प्रकृतिविना अभेद बन्धविषे ८२ कही । अरु अभेदोदयविषे जातें दर्शनमोहकी ३ उदय हैं, तातें वर्णचतुष्ककी १६ विना ८४ कही । आगे कषायका कार्य कहे हैं पढमादिया कसाया सम्मत्तं देस-सयलचारितं । जहखादं घादंति य गुणणामा होंति सेसा वि ॥ ११५ ॥ Jain Education International. १३९ यतः प्रथमादिकषायाः जातें प्रथमको आदि लेकर कषाय सम्यक्त्वं देश-सकलचारित्रं यथाख्यातं घ्नन्ति, सम्यक्त्व देशचारित्र सकलचारित्र यथाख्यात इनहिं हनै है, ततः गुणनामानः भवन्ति, तातें ये कषाय गुणनाम हैं यथागुण तथा नाम हैं । भावार्थ - अनन्त मिध्यात्वं अनुबध्नन्तीत्यनन्तानुबन्धिनः जातें सम्यक्त्वगुणको घातें अनन्त मिध्यात्वको बन्ध है तातें अनन्तानुबन्धी कहिए । अ ईषत् संयमं कषन्तीत्यप्रत्याख्यानकषायाः जातें देशसंयमको हिंसहि हैं तातें अप्रत्याख्यानकषाय कहिए। प्रत्याख्यानं कषन्तीति प्रत्याख्यानकषायाः जातें, सकलसंयमको हिंसै है तातें प्रत्याख्यानकप्राय कहिए । संयमेन समं एकीभूत्वा ज्वलन्ति संज्वलनाः, जातें यथाख्यातसंयमको हिंसे है, सकलसंयमसों एक होय करि दैदीप्यमान हैं तातें संज्वलनकषाय कहिए । इस प्रकार यथागुण तथा नाम कहिए For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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