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________________ कर्म प्रकृति १४० शेषाः अपि गुणनामानः भवन्ति, शेष जो हैं हास्यादि नव नोकषाय सो भी गुणनाम हैं जाते जो हास्यको प्रगट करे, सो हास्य वेदनीय है, इसी भाँति अन्य भी जानना इस प्रकार एकसौ अड़तालीस प्रकृति समस्त ही यथागुण तथा नाम जाननी । आगे संज्वलन आदिक चार कषायको वासनाकाल कहिए है - अंतोनुहुत्त पक्खं छम्मासं संखसंखऽणतभवं । संजणमादियाणं वासणकालो दु नियमेण ॥ ११६ ॥ संज्वलनादिकानां वासनाकालः संज्वलनादि लेकरि जो हैं कषाय तिनका वास नाकाल अन्तर्मुहूतं पश्न' षण्मासं संख्याता संख्यातानन्तभवान्तं नियमेन, अन्तर्मुहूर्त, एकपक्ष, छह मास संख्यात असंख्यात अतन्त भव निश्चयकरि यथाक्रम जानना । भावार्थ - कर्मोदय के अभाव होते संते जो कर्म-संस्कार रहै है ताको नाम वासनाकाल कहिए। जैसे काहू वस्तु ऊपर पुष्प राखि जो उठाय लीजे, वहाँ वासना कछुकाल ताई रहे है, तैसे कषायकर्मके उदय होय गये भी केतेक कालताई संस्कार रहै है सो वासना कहिए है । संज्वलनका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त जानना । प्रत्याख्यानका वासनाकाल एक पक्ष है । अप्रत्याख्यानका वासना काल षट्मास है। अनन्तानुबन्धीका वासनाकाल संख्यातभव वा असंख्यातभव वा अनन्तभव ताई जानना । आगें पुद्गलविपाकी प्रकृति कहै हैं देहादी फासता पण्णासा णिमिण ताव जुगलं च । थिर-सु-पत्तेदुगं अगुरुतियं पोग्गल विवाई ॥११७॥ देहादिस्पर्शान्ताः पञ्चाशत् प्रकृतयः, देहनामकर्मको आदि लेकरि स्पर्शनामकर्मताई पचास प्रकृति । ते कौन हैं ? देह ५ बन्धन ५ संघात ५ संहनन ६ संस्थान ६ आंगोपांग ३ वर्ण ५ रस ५ गन्ध २ स्पर्श ८ एवं ५० । निर्माणं निर्माणप्रकृति, आतपयुगलं च आतप १ उद्योत २ । स्थिर-शुभ-प्रत्येकद्विकं स्थिर १ अस्थिर २ शुभ १ अशुभ २, प्रत्येक साधारणद्विक २, अगुरुत्रिकं अगुरुलघु १ उपघात २ परघात ३ यह अगुरुत्रिक; एताः पुद्गलविपाकिन्यः प्रकृति पुद्गलविपाकी जाननी । पुद्गलके बिषे विपाक रस है जिनका ते पुद्गलविपाकी प्रकृति कहिए । देहनामकर्मके उदयतें देह होय है, सो देह पुद्गलमयी है, तातें देहनामकर्म पुद्गलविपाकी है । या भाँति इन बासठ प्रकृतिनिका विपाक पुद्गलविषें जानना । बासठ आगे भवविपाकी क्षेत्रविपाकी जीवविपाकी कर्म कहे हैं Jain Education International. आऊणि भव विवाई खेत्त विवाई य आणुपुव्वीओ | अट्ठतरि अवसेसा जीवविवाई मुणेयव्वा ॥ ११८ ॥ _ aaurata, नरकायु तिर्यंचायु मनुष्यायु देवायु वे चार भावविपाकी कहिए हैं, जातें इनका भत्र कहिए पर्याय सोई विपाक है आयुके उदय पर्याय भोगिए हैं, ताते आयुकर्म विपाको कहिए | क्षेत्रविपाकीनि आनुपूर्व्याणि, नरकानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी देवानुपूर्वी ये चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी हैं, जातें इनका विपाक क्षेत्र है तातें क्षेत्र - विपाकी हैं । अवशिष्टानि अष्टसप्ततिः जीवविपाकीनि, पुद्गलविपाकी भवविपाकी क्षेत्रविपाकी पूर्व कहे जे कर्म एक सौ अड़तालीस प्रकृतिमध्य तिनतें बाकी रहे जे अठहत्तर कर्म ते जीवविपाकी कहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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