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________________ १३८: कर्मप्रकृति तातें आत्माविषे चारित्रगुण जानना । यथाख्यात चारित्र ऐसा जो कहिए हैं सो सकलचारित्रकी अपेक्षाकरि; जातें सकल प्रधानगुण आच्छादै है तातें मिथ्यात्व सर्वघाती जानो, जाते. याके उदय आत्माका यथार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनगुण प्रगट नाहीं होय है। मिश्र. मिथ्यात्व भी सर्वघाती है, जातें मिश्रमिथ्यात्वके उदय असत्य पदार्थविर्षे समान श्रद्धान है, तातें मिश्रमिथ्यात्व जात्यन्तर सर्वघाती कहिए। ए इकवीस प्रकृति इस भाँति सर्वघाती जाननी। आगे देशघातीनिकी विशेषता कहै हैं-मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान ये ज्ञानके अंश हैं, तातें इनको जे प्रकृति आच्छार्दै ते देशघाती कहिए। चक्षदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन ये दर्शन गुणके अंश हैं, इनके आच्छादनेतें चक्षुदर्शनावरणीय अचक्षुदर्शनावरणीय अवधिदर्शनावरणीय देशघाति या कहिए । जाते सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्वका चतुर्थगुणस्थानतें सप्तमगुणस्थान ताई उदय है, सम्यक्त्वको मलिन करै है, नाश नाहीं करै है, तातें सम्यक्त्वगुणके देश आच्छादनतें सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व देशघाती जानना। जातें चारित्रके देशको आच्छादै है, तातें संज्वलनचतुष्क देशघाती कहिए । जाते अन्तरायकर्म जीवके वीयगुणके देश ही को आच्छादै है, सर्व वीर्यगुण घातको असमर्थ है, तातें अन्तरायकमकी पंच प्रकृति देशघातिया कहिए। इस भाँति छठवीस प्रकृति देशघाती कही। .. आगे एकसौ अड़तालीस प्रकृति निमें कितनी प्रशस्त हैं, कितनी अप्रशस्त हैं, यह भेद कहनेको प्रथम ही अप्रशस्त प्रकृति कहे हैं--प्रशस्त नाम भली प्रकृतिका है, अप्रशस्त बुरी प्रकृतिका नाम है। सादं तिण्णेवाऊ उचं सुर-णर दुगं च पंचिंदी । देहा बंधण संघादंगोवंगाई वण्णचऊ ॥१११॥ समचउर वारिसहं उवघाण गुरुछक्क सग्गमणं । तसवारसट्ठसठ्ठी वादालमभेददो सत्था ॥११२॥ . सातं सातावेदनीय, त्रीणि आयूंषि देवायु मनुष्यायु तियंचायु ये तीन आयुकर्म, उच्चं ऊंचगोत्र, नर-सुरद्विकं मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी देवगति देवगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रियं पञ्चेन्द्रियजाति, देहाः पश्च औदारिकशरीर वैक्रि यिकशरीर आहारकशरीर तैजसशरीर कार्मणशरीर यह पंच प्रकार शरीर, बन्धनानि पश्च औदारिकबन्धन वैक्रियिकबन्धन आहारकबन्धन तैजसबन्धन कार्मणबन्धन यह पंच बन्धन, संघातानि पञ्च औदारिकसंघात वैक्रियिकसंघात आहारकसंघात तैजससंघात कार्मणसंघात यह पंचसंघात, आंगोपांगानि त्रीणि औदारिकांगोपांग वैक्रियिकांगोपांग आहारकांगोपांग यह तीन प्रकार आंगोपांग, वर्णचतुष्क शुभवर्ण शुभरस शुभगंध, शुभस्पर्श यह वर्णचतुष्क, समचतुरस्रं समचतुरस्र संस्थान, वन. वृषभ वनवृषभाराचसंहनन, उपघातोनागुरुषटकं उपघात-प्रकृतिविना अगुरुषटककी पंच प्रकृति, अगुरुलघु १ परघात २ उच्छ्वास ३ आतप ४ उद्योत ५ एवं पंच प्रकृति, त्रसद्वादशक त्रस १ बादर २ पर्याप्त ३ प्रत्येक ४ स्थिर ५ शुभ ६ सुभग ७ सुस्वर ८ आदेय ६ यशःकीर्ति १० निर्माण ११ तीर्थकर १२ ये त्रस बारह; एताः अष्टषष्टिः प्रकृतयः शस्ताः भवन्ति ये अड़सठ प्रकृति प्रशस्त है, इनको नाम पुण्य प्रकृति कहिए। द्विचत्वारिंशत् प्रकृतयः अभेदविवक्षायां शस्ताः ये बयालीस प्रकृति प्रशस्त जाननी । जातं वर्णचतुष्ककी बीस प्रकृति अभेदविवक्षामें चार गिनै हैं । अरु बन्धन-संघातकी दश प्रकृति पंच देह विर्षे गर्भित हैं, तातें इन छव्वीस प्रतिविना अभेदविवक्षातें बयालीस जाननी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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