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कर्मप्रकृति ..
(७) ज प्रतिको गा० ९९ की टाका में दिया हआ छहों पर्याप्तियोंका स्वरूप भी ब प्रतिमें नहीं है। वहाँ केवल पर्याप्तियोंके नाम दिये गये हैं।
(८) गा० १०० की टीकामें जो ‘साहारणमाहारो' आदि तीन गाथाएँ दो हुई हैं, वे भी ब प्रतिमें नहीं है।
(९) गा० १०१ की टीकामें शरीरोंके १० उत्तर भेद गिनाये गये हैं, वे भी इसमें नहीं हैं ।
(१०) गा० १०२ की टोकामें 'अथवा' कहकर अन्तराय कर्मकी पांचों प्रकृतियोंका जो स्वरूप दिया गया है, ब प्रतिमें वह न देकर इतना मात्र ही लिखा है-"अथवा दानादिपरिणामस्य व्याघातहेतुत्वाद् दानाद्यन्तरायः ।"
(११) गा० १०४ के पूर्वार्धके अन्त में 'सम्ममिच्छत्तं' के स्थानपर टीकाकारको 'मिच्छत्तं' पाठ हो मिला रहा प्रतीत होता है, तभी उन्होंने टोकामें 'सम्म' इति मोलित्वा आदि कहकर पूरे नामकी पूत्ति की है।
(१२) ब प्रतिमें गा० १०८ की टीका अति संक्षिप्त रूपसे दी गयी है, जब कि ज प्रतिमें वह विस्तृत रूपके साथ पायी जाती है।
(१३)ज प्रतिकी गा० १०९ की टोकामें पांचों निद्राओंके नाम पाये जाये है, किन्तु ब प्रतिमें पृथक्-पृथक् नाम न देकर 'स्त्यानगृद्धयादिपंचकं' इतना ही दिया गया है।
(१४) गा० ११३-११४ की टोकामें पांच संस्थान पाँच संहननोंके नाम नहीं दिये गये, जब कि ज प्रतिमें ये पाये जाते हैं।
(१५ ) ब प्रतिको गा० ११६ को टोकामें प्रत्येक कषायपदके साथ 'वासनाकालः' पद नहीं दिया गया है, जब. कि वह ज प्रतिमें पाया जाता है।
(१६) ब प्रतिमें गा० ११७ की टीका संक्षिप्त है, वह ज में विस्तृत है।
( १७ ) आगे अनेक स्थलोंपर दोनों प्रतियोंको टीकामें संक्षेप-विस्तारका भेद नामादिके साथ भो पाया जाता है। जिनमें से कुछ एकको उदाहरणके स्वरूप यहाँ दिया जाता हैब प्रति
ज प्रति गा० १२१ चतुर्गतयः
नरकादि चतुर्गतयः पंच जातयः
एकेन्द्रियादि पंच जातयः गा० १२३ षोडशकषायेषु
अनन्तानुबन्धि"....."भेदभिन्नेषु षोडशकषायेषु ( १८ ) ब प्रतिकी गा० १३९ की टीकाके अन्तमें जो. संदृष्टियां दी गयी हैं, और जो कि प्रस्तुत संस्करणमें मुद्रित हैं, बे जयपुर-भण्डारकी प्रतिमें नहीं पायी जातीं।
(१९) ज प्रतिमें स्थितिबन्ध प्रकरणके अन्तमें संदृष्टियोंसे पूर्व 'इत्यनुभाषाप्रकरणं समाप्तं' वाक्य लिखा है। पर ब प्रतिमें वह नहीं है। किन्तु संदृष्टियोंके अन्त में 'इति स्थितिबन्धप्रकरणं समाप्तं' दिया है।
उक्त अन्तरोंके अतिरिक्त और भी छोटे-मोटे अनेक अन्तर है, जिन्हें विस्तारके भयसे नहीं दिया गया है। टोकागत इन विभिन्नताओंको देखनेपर उसके दो व्यक्तियों के द्वारा रचे जानेको बातपर प्रकाश पड़ता है कि एकके द्वारा संस्कृत टीकाके रचे जानेपर दूसरेने उसे यथास्थान जो पल्लवित किया है, वही भेद जयपुर और ब्यावरकी प्रतियोंमें दिखाई दे रहा है, दोनों प्रतियोंको देखते हुए यह बात हृदयपर सहजमें ही अंकित होती है।
(२०) गा० १६ की टीका ज और ब दोनों ही प्रतियोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारको पायी जाती है। ब में वह संक्षिप्त है, वह पाठ पादटिप्पणमें दिया गया है। ज का पाठ विस्तृत है, उसे कार दिया गया है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि ज प्रतिका पाठ पञ्चास्तिकायको टीकाका शब्दशः अनुकरण करता है।
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