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________________ . प्रस्तावना टिप्पणरूपमें इस गाथाको अपनी प्रतिमें पंचास्तिकाय ग्रन्थसे, जहाँ वह नं० १५ पर पायी जाती है, उद्धृत किया होगा, जो बादको संग्रह करते समय कर्मप्रकृतिके मूलमें प्रविष्ट हो गयी।" ( पुरातन-जैनवाक्यसूची, पृ० ८३) श्री मुख्तार साहबकी सम्भावना ठीक हो सकती है, क्योंकि मूडबिद्रीकी जिस प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतिसे मैंने श्री० पं० भुजबली शास्त्रीके द्वारा मूलपाठका मिलान कराया है, उसमें भी वह नहीं पायी जाती है । परन्तु फिर भी प्रस्तुत संस्करण में उक्त गाथा यथास्थान दी गयी है और इसका कारण यह है कि कर्मप्रकृतिको संस्कृत टीकावाली जो प्रतियां मुझे उपलब्ध हुई हैं, उन सबमें जो सबसे प्राचीन है अर्थात वि० सं० १६२७ की लिखी हुई है उसमें भी वह गाथा अपनी संस्कृत टोकाके साथ उपलब्ध है। इससे इतना तो निश्चित है कि टीका-रचनाके पूर्व ही वह मूलका अंग बन चुकी थी। हाँ, टोका-प्रतियोंमें एक अन्तर अवश्य दृष्टिगोचर होता है, वह यह कि जयपुरवाली प्रतिमें उसकी टीका ठीक वही है, जो पंचास्तिकायमें पायी जाती है । किन्तु ब्यावरवालो प्रतिमें टीका उससे भिन्न है और जिसका टीकाकारके द्वारा ही रचा जाना सिद्ध होता है। ताड़पत्रीय प्रतिमें चौथी गाथाके बाद "सयलरसरूवगन्धेहिं परिणदं चरिमचदुहिं फासेहिं । सिद्धादोऽभव्वादोऽणंतिमभागं गुणं दव्वं ।।" यह गाथा; तथा पचीसवीं गाथाके बाद "आउगभागो थोओ णामागोदे समो तदो अहिओ। घादितिए वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥" यह गाथा पायो जाती है। परन्तु ये गाथाएँ न तो संस्कृत टीकावाली प्रतियोंमें पायी जाती हैं और न पं० हेमराजजीवाली भाषाटोकाको प्रतिमें ही पायी जाती हैं, अतः उन दोनोंको प्रस्तुत संस्करण में नहीं दिया गया है। : ताड़पत्रीय प्रतिमें एकसौ उनतालीसवीं गाथा भी नहीं पायी जाती है, किन्तु वह संस्कृत और हिन्दी टोकामें यथास्थान पायी जाती है, अतः उसे ज्योंका-त्यों रखा गया है। ताड़पत्रीय प्रति-गत शेष पाठ-भेदोंको यथास्थान पाद-टिप्पणमें दे दिया गया है । ज और ब प्रति-गत विशेषताएँ जयपुर-भण्डारको प्रतिवाली संस्कृत टोकाके साथ ऐलक सरस्वती भवन ब्यावरको प्रतिवाली संस्कृत टोकाका मिलान करनेपर अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर हुईं, जिनमें बहुत-सी तो टीकाके कर्तृत्व-निर्णयमें भी सहायक सिद्ध होती हैं । नीचे कुछ खास विशेषताएं दी जाती हैं (१) गा० ९ की टीकामें "श्रीगोम्मटसारे....."से लेकर "एवं सर्वाः १४८ प्रकृतयः" तकको टीका ज प्रतिमें नहीं पायी जाती है । वह ब प्रतिमें पायी जाती है और तदनुसार ही यहाँ दी गयी है । (२) गा० ५५ को टीकाके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंकी वह निरुक्ति दो गयी है, जो कि ज प्रतिमें गा० ६१ के स्थानपर दी गयी है। एक विशेषता और भी है कि ६१ नं०वाली गाथाको यहींपर 'तथा चोक्तं' कहकर दिया गया है। तथा उसी 'उक्तं च' वाली गाथाको यथास्थान ६१ नं० पर भी दिया गया है। किन्तु वहाँपर टीका में उक्त निरुक्तियाँ न देकर लिखा है"एतद् व्याख्यानं पूर्व विस्तरतः कषायनिरूपणप्रस्तावे प्रतिपादितमस्ति" (ब प्रति, पत्र १८/A भाग) (३) गा०६५ की टोकाके अन्तर्गत 'तथा चोक्तं' कहकर जो तीन श्लोक दिये गये हैं, वे भी ब प्रतिकी टीकामें नहीं पाये जाते । . (४) गा० ६९ को टीकाके अन्तमें जो गाथा ज प्रतिमें दी गयी है, वह भी ब प्रतिमें नहीं है। (५) ब प्रतिमें पत्र २१ पर नामकर्मको रचना-संदृष्टि दी गयी है, वह ज प्रतिमें नहीं है। हमने इसे परिशिष्ट में सभी संदृष्टियोंके साथ दिया है। (६) गा०७३ को टीकामें जो छह संस्थानोंका स्वरूप दिया गया है, वह ब प्रतिमें नहीं है। इसी प्रकार गा० ७४ की टीकामें जो अंगोपांगोंका स्वरूप दिया गया है, वह भी ब प्रतिमें नहीं पाया जाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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