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________________ प्रदेशबन्ध अरहंत-सिद्ध चेदिय-तव-गुरु- सुद- धम्म- संघपडिणीगो । बंदि दंसणमोहं अनंत संसारिओ जेण ॥ १४७॥ योऽर्हत्सिद्धचैत्यतपोगुरुश्रुतधर्मसंघानां प्रतिकूलः शत्रुभूतः स प्राणी तदर्शनमोहनीय मिथ्यात्वं ना येन दर्शन मोहोदयागतेन जीवः अनन्तसंसारी स्यात् ॥ १४७॥ तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणदो रायदोसतो | बंदि चरितमोहं दुविहं पि चरित्तगुणघादी' ॥ १४८ ॥ ७५ से उन्हें बधिया (नपुंसक ) करने से जीवोंको नाना प्रकारसे शारीरिक और मानसिक दुःख पहुँचाने से, तीव्र अशुभ परिणाम रखनेसे, विषय कपाय- बहुल प्रवृत्ति करनेसे, पाँचों पापोंके आचरण से भी असातावेदनीय कर्मका विपुल परिमाणमें बन्ध होता है । गाथा में जो सबसे अधिक ध्यान देनेकी बात कही, वह यह है कि ऊपर कहे गये कार्य चाहे मनुष्य स्वयं करे, चाहे, करावे, या करते हुए की अनुमोदना करे, सभी दशाओं में असातावेदनीय कर्म तीव्रता से बँधेगा | आजकल कितने ही लोग ऐसा समझते हैं कि जो जीव घातक कसाई है उसे ही पाप-बन्ध होगा, माँस-भक्षियों को नहीं । पर यह विचार एकदम भ्रान्त है । जिस परिमाणमें हिंसक पापी है और उसे प्रचुरतासे पापका बन्ध होता है, उसी परिमाण में मांभोज भी पापी है और उसके भी उसी विपुलतासे तीव्र असातावेदनीयका बन्ध होता है । इसके अतिरिक्त अपने आश्रित दासी दासको, या पशु-पक्षियोंको समयपर आहार आदि नहीं देना, उनकी शक्तिसे अधिक उनसे बलात् कार्य कराना अधिक भार लादना आदि कार्य भी असातावेदनीयकेही बन्धक हैं । Jain Education International. अब मोहनीय कर्मके प्रथम भेद दर्शनमोहनीयके बन्ध-कारण कहते हैं अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (प्रतिमा) तप, श्रुत, ( शास्त्र ) गुरु, धर्म, और मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघके प्रतिकूल आचरण करनेसे जीव उस दर्शनमोहनीय कर्मका बन्ध करता है, जिससे कि वह अनन्त कालतक संसार में परिभ्रमण करता है ॥ १४७॥ विशेषार्थ - जिसमें जो अवगुण नहीं है, उसमें उसके निरूपण करने को अवर्णवाद कहते हैं । वीतरागी अष्टादश दोषरहित अरहन्तोंके भूख-प्यास की बाधा बतलाना, रोगादिकी उत्पत्ति कहना, सिद्धों का पुनरागमन बतलाना, तपस्वियों में दूषण लगाना, हिंसा में धर्म बतलाना, मद्य-मांस-मधुवे सेवनको निर्दोष कहना, निर्ग्रन्थ साधुको निर्लज्ज कहना, कुमार्गका उपदेश देना, सन्मार्गके प्रतिकूल प्रवृत्ति करना, धर्मात्माओंको दोष लगाना, कर्म- मलीमस संसारियोंको सिद्ध या सिद्ध-समान कहना, सिद्धों में असिद्धत्व प्रकट करना, अदेव या कुदेवोंको सच्चा देव बतलाना, देवों में अदेवत्व प्रकट करना, असर्वज्ञको सर्वज्ञ और सर्वज्ञको सर्वज्ञ कहना, इत्यादि कारणोंसे संसारके बढ़ानेवाले और सम्यक्त्वका घात करनेवाले मिथ्यात्वरूप दर्शन मोहनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है । यह कर्म सभी कर्मों में प्रधान है, अतः इसे ही कर्म-सम्राट् या मोहराज कहते हैं और इसके तीव्र बन्धसे जीवको संसार में अनन्त काल तक भटकना पड़ता है। अब मोहनीय कर्मके द्वितीय भेद चारित्रमोहनीय के बन्ध-कारणोंका निरूपण करते हैंतीव्र कपायवाला, अत्यधिक मोहयुक्त परिणामवाला और राग-द्वेपसे सन्तप्त जीव १. पञ्चसं० ४, २०६ । गो० क० ८०२ । २. व 'संसत्तो' इति पाठः । तथा सति 'संसक्तः ' इत्यर्थः । ३. पञ्चसं० ४, २०७ । गो० क० ८.३ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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