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________________ कर्मप्रकृति यो जीवस्तीवकषायनोकषायोदययुत:1 बहुमोहपरिणतः रागद्वेषसंसक्तः चारित्रगुणविनाशनशील: स जीवः कषाय-नोकषायभेदं द्विविधमपि चारित्रमोहनीयं बध्नाति ॥१४॥ मिच्छो हु महारंभो णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधदि पावमई रुद्दपरिणामो ॥१४६।। यः खलु मिथ्यादृष्टिर्जीवः प्रचुरारम्भः सेवाकृषिवाणिज्यादिबह्वाऽऽरम्भः निःशील: तीव्रलोभसंयुक्तः रौद्रपरिणामः पापकारणबुद्धिः स जीवो नारकायुष्कं बनाति ॥१४६॥ कषाय और नोकषाय रूप दोनों प्रकारके चारित्र-मोहकर्मको प्रचुरतासे बाँधता है, जो कि चारित्रगुणका घातक है ॥१४८॥ विशेषार्थ-पहले चारित्रमोहनीयकर्मके दो भेद बतला आये हैं कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय । राग-द्वेषसे संयुक्त तीनकषायी जीव कषायवेदनीयकर्मका और बहुमोहसे परिणत जीव नोकपाय वेदनीय कमेका बन्ध करता है । य कमका बन्ध करता है । इसका खुलासा इस प्रकार है-तीत्रक्रोधसे परिणत जीव अनन्तानुबन्धी क्रोधका बन्ध करता है, इसी प्रकार तीव्र मान, माया और लोभवाला जीव अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभ कषायका तीव्र बन्ध करता है। तीव्र रागी, अतिमानी, ईर्ष्यालु, मिथ्या-भाषी, कुटिलाचरणी और परस्त्री-रत जीव स्त्रीवेदका बन्ध करता है। सरल व्यवहार करनेवाला, मन्दकपायी, मृदुस्वभावी ईर्ष्या-रहित और स्वदार-सन्तोषी जीव पुरुषवेदका बन्ध करता है। तीव्रक्रोधी, चुगलखोर मायावी, पशुपक्षियोंका वध, बन्धन और अंगच्छेदनादि करनेवाला, स्त्री और पुरुष दोनोंके साथ व्यभिचार और अनंग-क्रीड़ा करनेवाला, व्रत, शील और संयमके धारक साधु और साध्वियों के साथ मैथुन सेवन करनेवाला, पंचेन्द्रियोंके विषयोंका तीव्र अभिलाषी, जिह्वा-लोलुपी जीव नपुंसकवेदका बन्ध करता है। स्वयं हँसनेवाला, दूसरोंको हँसानेवाला, मनोरंजनके लिए दूसरोंकी हँसी उड़ानेवाला, विनोदी स्वभावका जीव हास्यकर्मका बन्ध करता है । स्वयं शोक करनेवाला दूसरोंको शोक उत्पन्न करनेवाला, दूसरोंको दुखी देखकर हर्षित होनेवाला जीव शोक कर्मका बन्ध करता है । नाना प्रकारके क्रीड़ा-कुतूहलोंके द्वारा स्वयं रमनेवाला और दूसरोंको रमानेवाला, दूसरोंको दुःखसे छुड़ानेवाला और सुख पहुँचानेवाला जीव रतिकर्मका बन्ध करता है। दूसरोंके आनन्दमें अन्तराय करनेवाला, अरतिभाव पैदा करनेवाला और पापियोंका के रखनेवाला जीव अरतिकर्मका बन्ध करता है। स्वयं भयभीत रहनेवाला. दसरोंको भय उपजानेवाला जीव भयकर्मका बन्ध करता है। साधुजनोंको देखकर ग्लानि करनेवाला, दूसरोंको ग्लानि उपजानेवाला और दूसरेको निन्दा करनेवाला जीव जुगुप्साकर्म बाँधता है । इस प्रकार चारित्रमोहनीयकमकी पृथक्-पृथक् प्रकृतियोंके बन्धके कारणोंका निरूपण किया । अब सामान्यसे चारित्रमोह के बन्ध-कारण बतलाते हैं जो जीव व्रत-शील-सम्पन्न धर्म-गुणानुरागी, सर्वजगत्-वत्सल, साधुजनोंकी निन्दा-गर्दा करता है, धर्मात्म।जनोंके धर्म-सेवनमें विध्न करता है, उनमें दोष लगाता है, मद्य-माँस-मधका सेवन और प्रचार करता है. दसरोंको कषाय और नोकपाय उत्पन्न करता है, वह जीव चारित्र मोहकर्मका तीव्रबन्ध करता है। अब आयुकर्मके चार भेदों में से पहले नरकायुके बन्ध कारण कहते हैं मिथ्यादृष्टि, महा आरम्भी, व्रत-शीलसे रहित, तीव्र लोभसे संयुक्त, पापबुद्धि और रौद्रपरिणामी जीव नरकायुको बाँधता है ॥१४॥ १. पञ्चसं० ४, २०८ । गो० क०८०४ । 1. ज तीवकषायोदययुतः। 3.ब गुणव्रत-शिक्षावतरहितो वा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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