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________________ कर्मप्रकृति भूदाणुकंप-वदजोगजुत्तो' खंतिदाण गुरुभत्तो । बंदि भूयो सादं विवरीदो बंदे इदरं ||१४५ || २ यांगत्यां कर्मविपाकाद् भवन्तीति भूताः प्राणिनः । तेष्वनुकम्पा कारुण्यपरिणामः । व्रतानि हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मचर्यपरिग्रहेभ्यो विरतिः । योगः समाधिः सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । तैर्युक्तः । क्रोधादिनिवृत्तिलक्षणं क्षान्त्या चतुर्विधदानेन पञ्चगुरुभक्त्या च संपन्नः स जीवः सातं तीव्रानुभागं भूयो बध्नाति । तद्विपरीतस्तादृगसातं बध्नाति ॥ १४५॥ ७४ दुक्ख-वह-सोग-तावाकंदण परिदेवणं च अप्पठियं । मुभयमिदि वा बंधो असादस्स || १४६॥ वेदनापरिणामः दुःखम् १ हननं बधः २ । वस्तुविनाशे अतिबैकृव्यं दीनत्वं शोकः ३ । चित्तस्य खेदः पश्चात्तापः तापः ४ । बुम्बापात हृदयादिकुट्टनं आक्रन्दनम् ५ । रोदनं अश्रपातः परिदेवनं च ६ एतत्सवं आत्मस्थितं वा अन्य स्थितं वा उभयस्थितं वा भवति, [ तथा ] सति असातस्य दुःखस्वरूपस्य कर्मणः बन्धो भवति ॥ १४६॥ तब दर्शनावरण कर्मका तीव्रतासे बन्ध होता है । इसके अतिरिक्त आलसी जीवन बितानेसे, विषयों में मग्न रहने से, अधिक निद्रा लेनेसे, दूसरेकी दृष्टिमें दोष लगानेसे, देखने के साधन उपनेत्र ( चश्मा) आदिके चुरा लेने या फोड़ देनेसे और जीवघात आदि करने से भी दर्शनावरणीय कर्मका प्रचुर परिमाण में बन्ध होता है । वस्तुतः आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंका संसारी जीवोंके निरन्तर बन्ध होता ही रहता है । किन्तु उपर्युक्त कार्योंके करने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके तीव्र अनुभाग और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है । अब वेदनीय कर्मके दोनों भेदोके-बन्ध कारणोंका निर्देश करते हैं सर्व प्राणियों पर दया करने से, अहिंसादि व्रत और समाधिरूप परिणामोंके धारण करनेसे, क्रोध के त्यागरूप क्षमा भावसे, दान देनेसे तथा पंच परमगुरुओंकी भक्ति करने से जीव सातावेदनीय कर्मके अनुभागको प्रचुरतासे बाँधता है । उक्त कारणोंसे विपरीत आचरण करनेसे जीव असातावेदनीय कर्मका तीव्र स्थिति और अनुभाग बन्ध करता है । सातावेदनीयके बन्धमें स्थितिका प्रचुर बन्ध न बतानेका कारण यह है कि स्थितिबन्धकी अधिकता विशुद्ध परिणामोंसे नहीं होती || १४५ || अब विशेषरूप असातावेदनीय कर्मके-बन्ध कारणोंका निरूपण करते हैं दुःख, बध, शोक, संताप, आक्रन्दन और परिवेदन स्वयं करनेसे, अन्यको कराने से तथा स्वयं करने और दूसरेको करानेसे असातावेदनीय कर्मका विपुलतासे बन्ध होता है ॥१४६॥ विशेषार्थ - गाथा में जो असातावेदनीयकर्मके बन्ध-कारण बतलाये गये हैं उनके अतिरिक्त जीवोंपर क्रूरतापूर्ण व्यवहार करनेसे, स्वयं धर्म नहीं पालन करके धर्मात्मा जनों के प्रति अनुचित आचरण करनेसे, मद्यपान, मांस भक्षणादिक करनेसे, व्रत, शीत, तपादिके धारकोंकी हँसी उड़ानेसे पशु-पक्षी आदिका वध-बन्धन, छेदन-भेदन और अंग - उपांगादि के Jain Education International १. त जुंजिदो । २. पञ्चसं० ४, २०५ । गो० क० ८०१ । 1. ब समीचीने सावधानम् । 2. ब आत्म- परस्थितम् । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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