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________________ प्रदेशबन्ध अथ ज्ञानावरणादिकर्मणां केन प्रकारेण कोहगाचरणेन च बन्धो भवतीति गाथाष्टादशकेनाऽऽह डिणीगमंतराए उवघादे तप्पदोस - णिण्हवणे | आवरणदुगं बंधदि भूयो अच्चारणाए वि ॥ १४४ ॥ ज्ञान-दर्शनयोः ज्ञान-दर्शनधरेषु अविनयवृत्तिः प्रत्यनीकं प्रतिकूलता इत्यर्थः १ | ज्ञान- दर्शन विच्छेदकरणमन्तरायः २ | मनसा वचनेन वा प्रशस्तज्ञान-दर्शनयोः दूषणं तयोः बाधाकरणं वा उपघातः ३ । तत्प्रदोषः तत्वज्ञान सम्यग्दर्शनयोः तद्वरेषु हर्षाभावः । श्रथवा तस्य तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्त्तने कृते कस्यचित्पुंसः स्वयमजल्पतोऽन्तःकरणपैशुन्यं प्रद्वेषः ४ । विद्यमाने ज्ञानादौ एतदहं न जानामि, एतत्पुस्तकमस्मत्पाइवे नास्ति, ज्ञानस्य अकथनं निह्नवः । वा अप्रसिद्धगुरून् श्रपलप्य प्रसिद्ध गुरुकथनं निह्नवः ५। कायेन वचनेन ज्ञानस्य अविनयः, गुणकीर्त्तनादेरकरणं वा आसादनम् ६ । एतेषु षट्सु सत्सु जीवो ते ज्ञानावरण-दर्शनावरणद्वयं भूयः प्रचुरवृत्या बध्नाति, स्थित्यनुमागौ बनातीत्यर्थः । षट्प्रकाराः प्रत्यनीकादयः तद्द्वयस्य ज्ञान - दर्शनावरणस्य युगपद् बन्धकारणानि तु तथा बन्धात् । अथवा विषयभेदादा स्रवभेदः - ज्ञानविषयत्वेन ज्ञानावरणस्य दर्शनविषयत्वेन दर्शनावरणस्येति ॥ १४४ ॥ अब प्रदेशबन्धका वर्णन करते हुए पहले ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म-बन्धके कारणोंका निरूपण करते हैं ७३ प्रत्यनीक, अन्तराय, उपघात, प्रदोष, निह्नव और असातनासे जीव ज्ञानावरण और • दर्शनावरण इन दो आवरण कर्मोंको अधिकतासे बाँधता है || १४४॥ विशेषार्थ - शास्त्रों में और शास्त्रोंके जानकार पुरुषोंमें अविनय रूप प्रतिकूल आचरण करना प्रत्यनीक है। ज्ञान प्राप्तिमें विघ्न करना, पढ़नेवालोंको नहीं पढ़ने देना, विद्यालय और पाठशाला आदिके संचालन में बाधाएँ उपस्थित करना, ग्रन्थों के प्रचार और प्रकाशनको नहीं होने देना अन्तराय है । किसीके उत्तम ज्ञानमें दूषण लगाना, ज्ञानके साधन शास्त्र आदिको नष्ट कर देना, विद्यालय आदिको बन्द कर देना उपघात है । पढ़नेवालोंके पठन-पाठनमें छोटी-मोटी विघ्न-बाधाएँ उपस्थित करना भी उपघातके ही अन्तर्गत है । तत्त्वज्ञान के अभ्यास में हर्षभाव नहीं रखना, अनादर या अरुचि रखना, ज्ञानी जनोंको देखकर प्रमुदित न होना, उनको आता देखकर मुख फेर लेना प्रदोष है । किसी विषय के जानते हुए भी दूसरेके पूछने पर 'मैं नहीं जानता' इस प्रकार ज्ञानका अपलाप करना, ज्ञानकी साधक पुस्तक आदि होनेपर भी दूसरेके माँगनेपर कह देना कि मेरे पास नहीं है, निह्नव है । अथवा अनेक गुरुजनोंसे पढ़नेपर भी अपनेको अप्रसिद्ध गुरुओंका शिष्य न बतलाकर प्रसिद्ध गुरुओंका शिष्य बतलाना भी निह्नवके ही अन्तर्गत है । किसीके प्रशंसा योग्य ज्ञान या उपदेशादिकी प्रशंसा और अनुमोदना नहीं करना, किसी विशिष्ट ज्ञानीको नीच कुलका बतला करके उसके महत्त्वको गिराना असातना है । इन कार्योंके करनेसे ज्ञानावरण कर्मका प्रचुरतासे बन्ध होता है। इसी प्रकार ज्ञानियोंसे ईष्या और मात्सर्य रखना, निषिद्ध देश और निषिद्धकालमें पढ़ना, गुरुजनोंका अविनय करना, पुस्तकोंसे तकियेका काम लेना, उन्हें पैरोंसे हटाना, ग्रन्थोंको भण्डारोंमें सड़ने देना, किन्तु किसीको स्वाध्यायके लिए नहीं देना, न स्वयं उनका प्रकाशन करना और न दूसरोंको प्रकाशनार्थ देना, इत्यादि कार्यों से भी ज्ञानावरण कर्मका तबन्ध होता है । ये ऊपर कहे हुए सभी कार्य जब दर्शन गुणके विषय में किये जाते हैं, १. पञ्च सं० ४, २०४ । गो० क० ८०० । १० Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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