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अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान – इन पाँच ज्ञानों का निरूपण किया गया है । इनके भेद-प्रभेद भी गिनाए गए हैं। ज्ञान के दो भेद किये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद किये हैं । इन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि के भेदों को भी गिनाया गया है। यह एक संक्षिप्त दार्शनिक ग्रन्थ भी है; क्योंकि इसमें ज्ञान, दर्शन आदि की समीक्षा सूत्र रूप में की गई है ।
नन्दी - सूत्र को हम ज्ञान - सूत्र भी कह सकते हैं; क्योंकि ज्ञान के प्रतीक तीर्थंकर हैं, गणधर हैं और उनका प्रतिपादित मार्ग भी है। ज्ञान से ही यह सूत्र प्रारम्भ होता है और ज्ञान पर ही इसका अन्त होता है । इसमें आभिनिबोध ज्ञान को मतिज्ञान भी कहा गया है श्रुत ज्ञान के रूप में अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत आदि का विवेचन किया गया है । प्रचलित आगमों का उल्लेख भी इसमें है ।
४. अनुयोगद्वार - सूत्र - इसमें अधिकार आनुपूर्वी, दस नाम, प्रमाण द्वार, निक्षेप, अनुगम और नय का वर्णन है । यह काव्य शास्त्र की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । इसमें महाभारत, रामायण, कौटिल्य अर्थशास्त्र आदि का उल्लेख है ।
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५. आवश्यक - साधु के लिए जो क्रिया अवश्य करने योग्य है उसे आवश्यक कहते हैं। उसके छह अध्ययन हैं
१. सामायिक, २ . चतुर्विंशति - स्तव, ३. वन्दन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और
६. प्रत्याख्यान
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साधु के ये नित्य नैमित्तिक कर्म हैं । साधु अपने उपयोग की रक्षा करने के लिए इन क्रियाओं को अवश्य करता है, इसी से सम्बन्धित यह आवश्यक सूत्र है ६. पिण्ड निर्युक्ति — इस सूत्र में साधु के ग्रहण करने योग्य आहार का निरूपण है। इसमें आठ अधिकार हैं, ६७१ गाथाएँ हैं। इसमें उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना प्रमाण, अङ्गार, धूम और कारण इन आठ साधु के निषेध करने योग्य कार्यों की विवेचना करके आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख है ।
इसके रचनाकार भद्रबाहु हैं । इस पर मलयगिरि की बृहद् - वृत्ति और वीराचार्य की लघु-वृत्ति भी प्राप्त है 1
ओघ नियुक्ति — ओघ का अर्थ है सामान्य या साधारण। इसमें साधु के सामान्य समाचारी का उल्लेख है। इसके रचनाकार भद्रबाहु हैं । इसको आवश्यक · नियुक्ति का अंश माना गया है। यह नियुक्ति श्रमणों के आचार-विचार आदि को प्रतिपादित करने योग्य है ।
छेद-सूत्र—छेद-सूत्र श्रमणों की आचार संहिता के प्रकाश-स्तम्भ हैं। इन सभी में उत्सर्ग, उपसर्ग, दोष और प्रायश्चित्त का वर्णन है क्योंकि आचार की पवित्रता दोषों की समाप्ति बिना संभव ही नहीं है इसलिए साधक किए गए कार्यों से बचने के लिए द्रव्य शक्ति के साथ क्षेत्र शुद्धि को भी महत्त्व देता है। श्रमण कृत कर्मों की
आचाराङ्ग - शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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