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भौगोलिक चित्रण के अतिरिक्त तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के जन्म स्थान, शासन, राज्य, शिक्षा, दीक्षा आदि के वर्णन के कारण ऐतिहासिक ग्रन्थ भी है।
६. सूर्यप्रज्ञप्ति-यह प्राभृत रूप में विभक्त है। इसमें कुल २० प्राभृत हैं, जिनमें सूर्य आदि ज्योतिष चक्र का वर्णन है। खगोलशास्त्र की दृष्टि से इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का १०८. सूत्रों में वर्णन है। इसके २० प्राभृत निम्न हैं
१.मंडल गति संख्या, २. सूर्य का तिर्यक परिभ्रमण, ३. प्रकाश्य क्षेत्र परिमाण, ४. प्रकाश संस्थान, ५. लेश्या प्रतिघात, ६. प्रकाश कथन, ७. प्रकाश संक्षिप्त, ८. उदय-अस्त-संस्थिति, ९. पौरुषी छाया परिमाण, १०. योग स्वरूप, ११. संवत्सरों का आदि-अन्त, १२. संवत्सरों के भेद, १३. चन्द्र की वृद्धि-क्षय, १४. ज्योत्स्ना लक्षण, १५. शीघ्र मन्द गति निर्णय, १६. अन्धकार, १७. च्यवन और उपपात, १८. ज्योतिषी विमानों की ऊँचाई, १९. चन्द्र-सूर्य संख्या और २०. चन्द्र-सूर्य अनुभाव।
उक्त १९ प्राभृतों में प्रश्नोतर के रूप में विषय को प्रतिपादित किया गया है। इस पर मलयगिरि ने टीका रची है और भद्रबाहु ने नियुक्ति रची है। यह भारतीय ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है; क्योंकि इसमें गणित के आधार पर सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्र आदि का वर्णन किया गया है इसलिए इसे ज्योतिष और गणित का भण्डागार कहा जा सकता है।
७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-चन्द्र के विषय को प्रतिपादित करने वाला यह आगम ग्रन्थ सूर्य प्रज्ञप्ति की तरह चन्द्र ज्योतिष चक्र का वर्णन करने वाला है। इसमें भी २० प्राभृत हैं जिनमें चन्द्र की गति, चन्द्र का परिभ्रमण, चन्द्र की संख्या, चन्द्र का विस्तार, स्थान, प्रतिघात, प्रकाश-ज्योतस्ना, चन्द्र की वृद्धि, क्षय आदि का वर्णन है। यह वर्णन भी प्रश्नोत्तर के रूप में है।
चन्द्र प्रज्ञप्ति पर मलयगिरि ने टीका लिखी है। इसमें भूगोल, खगोल आदि के अतिरिक्त वैज्ञानिक पक्ष भी हैं। यह विज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसमें चन्द्र से सम्बन्धित समस्त जानकारी प्राप्त होती है उससे इसकी ऐतिहासिकता का परिचय मिलता है।
८. निरयावलिका सूत्र इस सूत्र में नरक की यावलि पूर्ण करने वाले पुरुषों के जीवन का वर्णन है। यह पाँच उपांगों में विभक्त है
१. निरयावलिया अथवा कलिका (कल्पिका) २. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका) ३. पुप्फिया (पुष्पिका) ४. पुप्फचूलिया (पुष्प चूलिका) ५. वण्हि दसा (वृष्णि दशा)
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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